चोल वंश :-
दक्षिण भारत का सबसे प्राचीनतम वंश माना जाता है।
उदय : संगमकाल (3 शताब्दी) में परन्तु राजनैतिक उत्थान नवी शताब्दी में हुआ था।चोल का शाब्दिक अर्थ – घूमना
चोल वंश का संस्थापक – विजयालय था
विजयालय (850 ई. – 871 ई.)
यह पल्लवों का सामन्त था।
तंजौर पर आक्रमण कर विजय प्राप्त की थी।
नरकेशरी की उपाधि धारण की थी।
तंजौर में चोल साम्राज्य की नीव डाली।
चोलों की राजधानी थी – तंजौर
आदित्य प्रथम (871 ई. – 907 ई.) :-
प्रथम शक्तिशाली शासक जिसने पल्लवों को पराजित किया था।
उपाधि – कोदण्डरामपरान्तक प्रथम (907 ई. – 953 ई.) :- 915 ई. में वेल्लूर (कर्नाटक) के युद्ध में पाण्डे्य शासक राजसिंह-II व श्रीलंका के शासक कश्यप पंचम को पराजित किया।
मुदरै के युद्ध में पाण्डे्य शासकों को अंतिम रूप से पराजित कर “मदुरैकोण्ड” की उपाधि धारण की।
Note : 953 ई. से लेकर 985 ई. तक चोल साम्राज्य में राजनैतिक उठापटक रही इस दौरान उत्तम चोल (973-985 ई.) शासक जिसने पहली बार सोने के सिक्के चलाए ऐसा करने वाला प्रथम शासक था।
राजराज प्रथम (985-1014 ई.) :-
प्रथम सबसे प्रतापी शासक था।
श्रीलंका के शासक महेन्द्र-v को पराजित कर श्रीलंका के उत्तरी भाग पर अधिकार कर लिया था।
इस उत्तरी भाग को चोल साम्राज्य का एक प्रांत बनाया तथा इसका नाम “मुम्डीचोलमंडलम” रखा था।
श्रीलंका पर विजय की स्मृति में तंजौर में विशाल शिव मंदिर का निर्माण करवाया था जिसे “राजराजेश्वर शिव मंदिर/बृहदेश्वर शिव मंदिर” कहा जाता है।
1000 ई. में इसने भू-सर्वेक्षण ताकि भू-राजस्व का निर्धारण किया जा सके। स्थानीय स्वशासन को प्रोत्साहन दिया। एक दूत मण्डल चीन भेजा।
अपनी विजयों का समापन मालदीव समूह पर विजय प्राप्त करके किया था।
जिसमे राजेन्द्र चोल प्रथम ऐसा शासक –भारतीय सीमाओं को जलमार्ग द्वारा बंगाल की खाड़ी तक स्थापित कर दिया था। इन समस्त कारणों से बंगाल की खाड़ी को “चोलों की झील” कहा गया है।,
कावेरी नदी के किनारे “गंगकोडचोलपुरम” नगर की स्थापना तथा यहाँ पर “चोलगंगम” नामक तालाब का निर्माण करवाया था।
चालुक्य शासक जयसिंह-II व पाल शासकों को पराजित कर इस तालाब में गंगाजल लाकर डाला तथा इस तालाब से निकली जलधारा को राजेन्द्र चोल का जलीय स्तंभ कहा जाता था।
राजाधिराज प्रथम (1044-1052 ई.) :-
इसने चेर, पाण्डे्य व श्रीलंका पर नियंत्रण रखा था।
वेंगी चालुक्य उत्तराधिकार संघर्ष में भाग लिया था।कल्याणी को जीतकर – विजेन्द्र की उपाधि धारण की थी।
1052 ई. में कृष्णा नदी के किनारे हुए कोप्पम युद्ध में सोमेश्वर प्रथम के हाथों मारा गया था।
राजेन्द्र-II (1052-1064 ई.) :-
अपने पिता राजाधिराज की हत्या का बदला लेने हेतु कोप्पम की युद्ध भूमि में ही सोमेश्वर प्रथम को पराजित किया था। इस विजय के उपलक्ष में “कोल्हापुर” में एक विजय स्तंभ का निर्माण करवाया तथा अपना राज्याभिषेक करवाया था।
1062 ई. में कुंडलसंगम (कर्नाटक) के युद्ध में सोमेश्वर प्रथम को पुन: पराजित कर प्राकेसरी की उपाधि धारण की थी।
वीर राजेन्द्र (1064-1070 ई.) :-
वीर राजेन्द्र, राजेन्द्र-II का पुत्र था।
1066 ई. इसने कल्याणी के शासक सोमेश्वर प्रथम को पराजित किया था ।
सोमेश्वर ने अगले वर्ष पुन: लड़ने को चुनौती दी थी। 1067-68 ई. कुंडलसंगम के युद्ध में सोमेश्वर प्रथम बीमार होने के कारण स्वयं न आकर अपनी सेना को वीर राजेन्द्र से लड़ने भेजा था।
वीर राजेन्द्र ने सोमेश्वर की सेना को पराजित किया था। तुंगभद्रा नदी के किनारे “विजय स्तंभ” व “राजकेशरी” की उपाधि धारण की थी।
विजयवाड़ा (बैजवाड़ा) के युद्ध में वेंगी चालुक्यों को पराजित कर वेंगी पर पुन: चोलों का अधिकार स्थापित किया था।
Note : वीर राजेन्द्र की मृत्यु के बाद उसके पुत्रों में उत्तराधिकार संघर्ष हुआ, जिसमें अधिराजेन्द्र विजय रहा व शासक बना।1070 ई. में जनविद्रोह में अधिराजेन्द्र की मृत्यु हो गई मूल चोल वंश समाप्त हो गया।
कुलोत्तुंग प्रथम (1070-1120 ई.) :-
कौन – मुलत: यह वेंगी चालुक्य शासक राजेन्द्र द्वितीय था, जिसने अधिराजेन्द्र की मृत्यु के बाद चोल साम्राज्य पर अधिकार कर अपना राज्याभिषेक “कुलोत्तुंग प्रथम” के नाम से करवाया था।
इसके समय भी अनेक जन विद्रोह हुए।1076 ई. में सिंहल द्वीप (श्रीलंका) ने अपने आप को स्वतंत्र कर लिया था।
1078/79 कल्याणी शासक विजयादित्य (विक्रमादित्य) के साथ हुए युद्ध में इसने कल्याणी शासक को पराजित कर गंगवाडी पर अधिकार कर लिया था। पाण्डे्य व चेरो ने भी विद्रोह किए परन्तु उनका दमन कर दिया था।
कलिंग आक्रमण :-कुलोत्तुंग ने दो बार कलिंग पर आक्रमण किया था :-
1. 1096 ई. – द.कलिंग के विद्रोह का दमन करने हेतु।
2. 1110 ई. – कलिंग शासक अंनतवर्मन को पराजित कर कलिंग पर अधिकार कर लिया था।उपाधि – श्रीभुवनचक्रवर्तिन (तीनों लोको का स्वामी)1120 ई. में इसकी मृत्यु के साथ ही चोलों का पतन प्रारंभ हो गया था।
राजेन्द्र-III (1246-1279 ई.) :- चोल वंश का अंतिम शासक।इसी ने मदुरै के पण्डे्य शासक सुन्दर पाण्डे्य, चेर, कावतीय व होयसल पर विजय प्राप्त की थी।
सुंदर पाण्डे्य ने राजेन्द्र-III पर आक्रमण कर पराजित किया व इसे अपना सामंत बना लिया था। चोल साम्राज्य का विभाजन पाण्डे्य व होयसलो में हो गया था।
चोल प्रशासन:-
शासन की प्रकृति- राजतंत्रात्मक थी।
राजा की मृत्यु के बाद- ज्येष्ठाधिकार था।
उपराजा का सामान्यत- राजकुमारियों को दिया जाता था।
प्रशासन से संबंधित शब्दावली:
1. राजा के मौखिक आदेश- तिरुवायकेल्लि कहलाता था।
दो प्रकार के सरकारी अधिकारी
1 पेरुन्दनम: उच्च श्रेणी के अधिकारी
2 शिरुन्दम: निम्न श्रेणी के अधिकारीवैडेक्कार: राजा के व्यक्तिगत अंगरक्षकउडेनकुट्टम: शाब्दिक अर्थ: सदा प्रस्तुत समूहउडेनकुट्टम: में राजा के निजी सहायक शामिल होते थे।उडेनकुट्टम में आदेशों को लिपिबद्ध करने का कार्य किया जाता था।
Note- अधिकारियों को वेतन के रूप में भूमि दी जाती थी।
साम्राज्य विभाजन:-
प्रशासन इकाई- केन्द्र (देश)
मण्डलम (राज्य/प्रांत)
कोट्टम/ वलनाडु:जिला
नाडु- तहसील
कुर्रम- ग्राम पंचायत
गाँव- प्रशासन की सबसे छोटी इकाई
इनके सिक्कों पर – व्याघ्र, मछली, धनुष, वराह का अंकन होता था।दक्षिण भारत में वराह प्रकार का सिक्का सबसे ज्यादा प्रचलित था।ताँबे के सिक्के हेतु कणि शब्द का प्रयोग किया गया था।उत्तम चोल प्रथम चोल शासक जिसने सोने के सिक्के चलाए
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