बाल विकास (Child Development)
विकास की प्रक्रिया जीवन पर्यन्त चलती रहती है इसकी गति कभी तीव्र तो कभी मंद होती है, बालक या व्यक्ति का अध्ययन मनोविज्ञान की जिस शाखा के अंतर्गत किया जाता है उसे बाल मनोविज्ञान कहा जाता था परन्तु वर्तमान मे इसे बाल विकास कहा जाता है।
सर्वप्रथम काॅमेडीयस ने 1628 मे स्कुल ऑफ इंफेन्सी नाम से बाल बाडी स्कूल प्रारंभ किया, यह बालक की शिक्षा के संबंध मे किया गया पहला प्रयास था।
1657 मे काॅमेडीयस के द्वारा ही पहली बार चित्रित पुस्तको का वितरण किया गया।
1774 मे जर्मनी के विद्वान पेस्टोलाॅजी ने अपने ही साढे तीन वर्षीय पुत्र के विकास का अध्ययन किया एवं बेबी बायोग्राफी नामक लेख लिखा, यह बाल विकास के संबंध मे किया गया पहला प्रयास था।
पेस्टोलाॅजी के लेख को जर्मनी के बाल रोग विशेषज्ञ टाइडमैन ने पढा एवं इसके आधार पर बाल चिकित्सा मनोविज्ञान की विचारधारा का विकास किया।
पेस्टोलाॅजी को बाल मनोविज्ञान का जनक माना जाता है।
19वीं सदी मे श्रीमती हरलाॅक ने पहली बार यह विचार दिया की बालक का विकास गर्भकाल से ही प्रारंभ हो जाता है।
बाल विकास- गर्भावस्था से लेकर बालक के जन्म के बाद की समस्त अवस्थाओं का अध्ययन बाल विकास कहलाता है।
बाल मनोविज्ञान- बालक के जन्म के बाद की समस्त अवस्थाओं का अध्ययन बाल मनोविज्ञान कहलाता है।
बर्क के अनुसार जन्म पूर्व से लेकर परिपक्वता की अवस्था तक का अध्ययन बाल विकास होता है।
क्रो एंड क्रो के अनुसार गर्भावस्था से किशोरावस्था तक का विकास बाल विकास है।
अमेरिकी विद्वान स्टेनली हाॅल ने 1893 मे अमेरिका में बाल विकास आंदोलन की शुरूआत की इसलिए इसे बाल विकास आंदोलन का जनक कहा जाता है।
भारत मे बाल मनोविज्ञान एवं बाल विकास की शुरूआत 1930 मे हुई।
अभिवृद्धि एवं विकास
अभिवृद्धि
- बालक में समय के साथ होने वाला संख्यात्मक या मात्रात्मक परिवर्तन अभिवृद्धि कहलाता है। इसके अंतर्गत शरीर के अंगों में परिवर्तन, वजन में परिवर्तन लंबाई में परिवर्तन आदि को सम्मिलित किया जाता है।
- फ्रेंक के अनुसार कोशिकीय गुणात्मक वृद्धि की अभिवृद्धि है।
- अभिवृद्धि बालक के परिवर्तन का संकुचित रूप है इसमें विकास को सम्मिलित नहीं किया जाता है।
- बालक में अभिवृद्धि एक निश्चित आयु सीमा तक होती है।
- अभिवृत्ति की कोई निश्चित दिशा नहीं होती।
- अभिवृद्धि का मापन किया जा सकता है।
विकास
- बालक में समय के साथ होने वाला गुणात्मक एवं मात्रात्मक परिवर्तन विकास कहलाता है। इसके अंतर्गत बालक के बौद्धिक, नैतिक एवं संवेगात्मक परिवर्तन को शामिल किया जाता है।
- हरलाॅक के अनुसार - विकास केवल अभिवृद्धि तक ही सीमित नहीं है यह तो परिपक्वता की दिशा में होने वाला परिवर्तनों का प्रगतिशील क्रम है जिससे बालक में नई नई योग्यताएं एवं विशेषताएं प्रकट होती है।
- विकास बालक में परिवर्तन का विस्ततृ रूप है इसमें अभिवृद्धि को भी शामिल किया जाता है।
- बालक में विकास जीवनपर्यंत चलने वाली प्रक्रिया है।
- विकास की एक निश्चित दिशा होती है, विकास सिर से पैर की और होता है।
- विकास को केवल महसूस किया जाता है इसका मापन संभव नहीं है।
विकास के आयाम एवं सिद्धांत
निरंतर विकास का सिद्धांत
- निरंतरता के सिद्धांत के अनुसार विकास निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है, इससे आशय यह है कि बालक मे विकास प्रतिदिन एक निश्चित अनुपात मे निरंतर होता है कभी भी अचानक नहीं होता है।
असमानता या व्यक्तिगत भिन्नता का सिद्धांत
- व्यक्तिगत सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति में विकास कि दर अलग-अलग रहती है जैसे किसी बालक के दांत 5 माह में आते हैं तो किसी के इससे जल्दी आ जाते हैं।
निश्चित क्रम सद्धांत
- निश्चित क्रम के सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक बालक में विकास का क्रम समान रहता है जैसे प्रत्येक बालक में शैशवावस्था के बाद बाल्यावस्था आती है।
परिमार्जितता का सिद्धांत
परिमार्जित पिता के सिद्धांत के अनुसार व्यक्ति प्रशिक्षण एवं प्रयास के द्वारा कभी भी अभिवृद्धि एवं विकास कर सकता है।
दिशा का सिद्धांत
इसे मस्तकोधमुखी सिद्धांत भी कहा जाता है इसके अनुसार बालक का विकास सिर से पैर की ओर होता है।
केंद्र से परिधि की और विकास का सिद्धांत
केंद्र से शिरो और विकास के सिद्धांत के अनुसार बालक के आंतरिक भाग का विकास पहले होता है एवं बाह्य भाग का विकास बाद में होता है।
एकीकरण का सिद्धांत
इस सिद्धांत के अनुसार बालक धीरे धीरे अपने विभिन्न अंगों का संचालन करना सीखता है।
चक्राकार विकास का सिद्धांत
इस सिद्धांत के अनुसार बालक के सभी अंगों का विकास आवश्यकता अनुसार एक निश्चित क्रम एवं अनुपात में होता है।
सहसंबंधता का सिद्धांत
इस सिद्धांत के अनुसार बालक के विकास के विभिन्न पक्षों के विकास में संबंध पाया जाता है जैसे यदि बालक का शारीरिक विकास अच्छा होता है तो उसका मानसिक विकास भी अच्छा ही होता है।
सामान्य से विशिष्ट की ओर सिद्धांत
इस सिद्धांत के अनुसार बालक सर्वप्रथम सामान्य क्रियाएं करना सीखता है बाद में विशिष्ट क्रियाएं करना सीखता है।
समान प्रतिमान का सिद्धांत
यह सिद्धांत सोरेनसन ने दिया।
इस सिद्धांत के अंतर्गत प्रत्येक प्राणी अपने समान प्रतिमान के बालक को को जन्म देगा जैसे मनुष्य से मनुष्य एवं पशु पक्षियों से पशु पक्षी ही जन्म लेंगे।
विभिन्नता का सिद्धांत
इस सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक बालक में विकास अलग-अलग पाया जाता है।
विकास के पक्ष
- शारिरीक विकास
- मानसिक विकास
- सामाजिक विकास
- नैतिक विकास
- संवेगात्मक विकास
विकास की अवस्थाएं
- गर्भावस्था - गर्भधारण से 280दिन/9माह
- शैशवावस्था - जन्म से 5 वर्ष
- बाल्यावस्था- 5 - 12 बर्ष
- किशोरावस्था- 12 से 19 वर्ष
गर्भावस्था
- गर्भधारण से 280 दिन/9 माह तक का समय गर्भावस्था कहलाता है।
- जब निषेचन क्रिया के दौरान बीज(शुक्राणु) अण्डाणु मे प्रवेश करता है तो इससे युक्ता(zygote) कौशिका का निर्माण होता है इसी से जीवन कि शुरुआत होती है।
- प्रोजेस्टेरोन हार्मोन- गर्भधारण के लिए प्रोजेस्टेरोन हार्मोन जिम्मेदार रहता है।
- बीजावस्था - युक्ता कोशिका के निर्माण से लेकर 15 दिन या 2 सप्ताह तक का समय बीजावस्था चलाता है।
- योक - युक्ता कौशिका द्वारा एक द्रव स्त्रावित होता है उसे योक कहा जाता है इससे बालक को पोषण मिलता है।
- भ्रूणावस्था - जब बीज अंडाणु से बाहर निकलता है तो यह 32 कोशिकाओं में विभक्त हो जाता है इस अवस्था को भ्रूण अवस्था कहा जाता है यह अवस्था युक्ता के निर्माण के 16 दिन से 2 माह तक रहती है। गर्भावस्था में बालक का सर्वाधिक विकास इसी अवस्था में होता है।
- बालक शिशु की तुलना में बालिका शिशु का गर्भकाल लंबा होता है।
- अधिकतम गर्भकाल 330 दिन एवं न्यूनतम 180 दिन हो सकता है।
- एक्टोडर्म - भ्रुण कि सबसे बाह्य परत को एक्टोडर्न कहा जाता है। इससे हमारी त्वचा, बाल एवं नाखूनों का निर्माण होता है।
- मिसोडर्म - भ्रुण कि मध्यम परत को मिसोडर्न कहा जाता है, इससे मांसपेशियों का निर्माण होता है, मिसोडर्म के द्वारा ही आंतरिक भागो ह्रदय, मस्तिष्क, लीवर आदी के रक्षा के लिए खोल (कवर) का कार्य किया जाता है।
- एण्डोडर्म - भ्रुण कि सबसे आंतरिक परत को एण्डोडर्न कहा जाता है। इससे हमारे ह्रदय, मस्तिष्क, लिवर आदी आंतरिक भागो का निर्माण होता है।
- 6 माह के बालक मे लगभग सभी अंगों का पूर्ण विकास हो जाता है, एवं यह बाह्य वातावरण से प्रभावित होना शुरू हो जाता है।
- प्लेसेंटा नाल - बालक द्वारा माँ से पोषण इसी नाल से प्राप्त होता है।
- ऑक्सीटोसीन हार्मोन - यह प्लेसेंटा नाल को माँ के गर्भ से अलग करता है एवं शिशु को जनन नाल के पास ले जाने मे सहयोग करता है।
- रिलेक्सिन हार्मोन - यह जनन नाल को बडा करने मे मदद करता है।
- गर्भकाल के पाँचवे माह मे शिशु के दांतों का निर्माण शुरू हो जाता है।
शैशवावस्था
- शिशु के जन्म से 5-6वर्ष तक का समय शैशवावस्था कहलाता है।
- शैशवावस्था के उपनाम- सीखने का विकास काल, तीव्र विकास काल, जीवन की आधारशिला, खिलौनों की अवस्था, नैतिक शून्यता काल, उदासीनता काल, सजीव चिंतन की अवस्था, अनुकरण की अवस्था,
- जन्म के समय शिशु का वजन - 7 पोंड
- बालक के जन्म के एक सप्ताह तक बालक का वजन घटता है।
- जन्म के समय बालक कि लंबाई- 20 इंच
- जन्म के समय बालिका कि लंबाई- 19 इंच
- जन्म के समय बालक के मस्तिष्क का वजन -350 ग्राम
- शिशु के जन्म के समय ह्रदय कि धडकन - 140 बार(प्रति मिनट), यह कुछ समय बाद 120 हो जाती है।
- जन्म के समय बालक मे हड्डियों कि संख्या- 270 होती है जो बाल्यावस्था मे बढकर 350 हो जाती है एवं बाद मे व्यस्क होते होते घटकर 206 रह जाती है।
- जन्म के समय बालक मे मांसपेशिया - शरीर के कुल भाग कि 23%
- शिशु के सर्वप्रथम 5-6 माह कि आयु मे नीचे वाले जबडे के 2 दांत बाहर आते है एवं 4-5 वर्ष कि आयु तक कुल 20 दांत बाहर आते है इन्हें दुध के दांत भी कहा जाता है, बालक की अपेक्षा बालिका में दांत जल्दी आते हैं।
- दांतो के लिए कैल्शियम उपयोगी है।
शैशवावस्था मे बौद्धिक विकास
- गुड एन एफ के अनुसार 3 वर्ष मे बालक कि बुद्धि का लगभग आधा विकास हो जाता है।
- फ्रायड के अनुसार 5 वर्ष तक बालक को जो बनना होता है वह बन जाता है।
- वस्तु स्थायित्व- बालक जब किसी वस्तु को देखता है तो उसके मस्तिष्क मे उस वस्तु का चित्र बन जाता है।
- सजीव चिंतन - शैशवावस्था में बालक निर्जिव वस्तुओं को भी सजीव मानकर ही व्यवहार करता है जैसे - सुर्य को देखकर सोचता है कि सुर्य उसके साथ चल रहा है।
- पूर्व प्रत्यात्मक काल - बालक मे प्रारंभ में विचार उत्पन्न होना।
शैशवावस्था मे बालक मे संवेगात्मक विकास
- जन्म से पहले बालक मे कोई संवेग नहीं होते है।
- ब्रिजेज के अनुसार बालक के जन्म के तुरंत बाद उसमे सर्वप्रथम उत्तेजना का विकास होता है।
- 2 वर्ष कि आयु तक बालको मे सभी संवेगो का विकास हो जाता है।
- वाट्सन के अनुसार क्रोध बालक के जन्म के साथ ही जन्म ले लेता है।
- अढाई से तीन वर्ष की आयु तक बालक मे भय पैदा हो जाता है।
- शैशवावस्था मे बालक न तो सामाजिक होता है न ही असामाजिक होता है वह उदासीन होता है।
- 1 माह का बालक मनुष्य व अन्य प्राणियों की आवाज मे अंतर नहीं कर पाता है।
- 2 माह का बालक मुस्कान पैदा करता है।
- 3 माह का बालक अपनी माँ को पहचानने लगता है।
- 6 माह का बालक अपना पराया समझने लग जाता है।
- 1 वर्ष का बालक बडो का अनुकरण शुरू कर देता है एवं स्वयं से खेलना शुरू कर देता है।
- 2 वर्ष का बालक परिवार का सक्रिय सदस्य बन जाता है।
बाल्यावस्था
- बाल्यावस्था में शारीरिक विकास
- बालक कि 5-6से 12 वर्ष कि आयु को बाल्यावस्था कहा जाता है।
- उपनाम- टोली की अवस्था, खेलो की अवस्था, निश्चितता की अवस्था, अनोखा काल, निर्माणकारी अवस्था
- फ्रायड के अनुसार बाल्यावस्था जीवन की निर्माण कारी अवस्था है।
- इस अवस्था को मंद परिवर्तन कि अवस्था भी कहा जाता है।
- बाल्यावस्था में बालक कि हड्डियों कि संख्या बढकर सर्वाधिक 350 हो जाती है।
- बाल्यावस्था में बालक के दुध के दांत टुटकर स्थाई दांत आते है।
- इस अवस्था मे बालक कि तुलना में बालिकाओ का विकास अधिक तैज गति से होता है।
- बाल्यावस्था के प्रारंभिक काल में मांसपेशियां लगभग 27-28% एवं उत्तर बाल्यावस्था में यह 30% हो जाता है।
बाल्यावस्था में बौद्धिक विकास
- वैचारिक काल - इस अवस्था में बालक कोई भी वस्तु देखता है तो वह उसपर विचार करता है।
- इस काल में बालक का लगभग 75% बौद्धिक विकास हो जाता है, बालक मूर्ति चिंतन, पलट कर जवाब देना, तर्क करना आदी सीख जाता है।
- इस अवस्था में बालक गणना करना एवं रंगों की पहचान करना सीख लेता है।
- इस अवस्था में बालक चोरी करना एवं झूठ बोलना भी सीख लेता है।
बाल्यावस्था में संवेगात्मक विकास
- बाल्यावस्था में बालक मे ईर्ष्या व घृणा संवेग उतपन्न हो जाते है।
- इस अवस्था में बालक के संवेग क्षणिक होते हैं एवं बालक संवेगो पर जल्दी नियंत्रण करना सीख लेता है।
बाल्यावस्था में सामाजिक विकास
- किलपैट्रीक के अनुसार बाल्यावस्था प्रतिद्वंदात्मक समाजीकरण की अवस्था है।
- राॅस के अनुसार बाल्यावस्था मिथ्या परिपक्वता की अवस्था है।
- काॅल & ब्रूस के अनुसार बाल्यावस्था जीवन का अनोखा काल है।
- स्टेंग के अनुसार ऐसा कोई खेल नहीं होता जो दस वर्ष तक का बालक नहीं खेलता।
- बाल्यावस्था में बालक टोली में रहना पसंद करता है।
- बाल्यावस्था में बालक संमलैगिक से मित्रता करना पसन्द करता है।
किशोरावस्था
किशोरावस्था मे विकास के सिद्धांत
अकस्मात परिवर्तनो का सिद्धांत
प्रवर्तक - स्टेन्ली हाॅल
स्टेन्ली हाॅल को किशोर मनोविज्ञान का जनक माना जाता है।
इस सिद्धांत अंतर्गत स्टेन्ली हाॅल का मानना है कि 11-12 वर्ष की आयु में बालक बालिकाओं में अकस्मात ऐसा परिवर्तन आता है जिससे वह किशोर किशोरी बन जाते हैं।
क्रमिक विकास क्रम का सिद्धांत
प्रवर्तक - थाॅर्नडाइक
इस सिद्धांत के अनुसार कोई भी विकास अकस्मात संभव नहीं है यहां क्रमिक रूप से होने वाले विकास का परिणाम है, जैसे किशोरावस्था के लक्षण बाल्यावस्था के उत्तर काल से ही नजर आने लग जाते हैं।
इसी सिद्धांत के अंतर्गत किंग ने कहा है कि जिस प्रकार आने वाली ऋतु के लक्षण वर्तमान ऋतु में नजर आने लग जाते हैं उसी प्रकार किशोरावस्था के लक्षण उत्तर बाल्यावस्था मे प्रकट हो जाते हैं।
होलिंग बर्थ ने किशोरावस्था को लेकर शामोआ द्वीप पर अध्ययन किया एवं इसे समझाया।
किशोरावस्था में शारीरिक विकास
- बालक कि 13 से 18-19 वर्ष कि आयु को किशोरावस्था कहा जाता है।
- उपनाम- टीन एज, एडोलेसेंस, कठिन काल, परिपक्वता की अवस्था, पूर्ण नैतिक काल, पूर्ण मानसिक विकास काल, आत्मसम्मान की अवस्था, संघर्ष व तुफानो की अवस्था, संवेग व आवेग तीव्रता की अवस्था, पूर्ण समाजीकरण काल
- इस अवस्था में बालक का शारीरिक विकास बालिका कि तुलना में तीव्र गति से होता है।
- इस अवस्था में बालक व बालिकाओं के लैंगिक अंगो का पूर्ण विकास हो जाता है।
किशोरावस्था में बौद्धिक विकास
- पियाजे एवं जाॅनसन के अनुसार 15 वर्ष कि आयु तक बालक कि बुद्धि का अधिकतम विकास हो जाता है।
- थाॅर्नडाइक के अनुसार बुद्धि का अधिकतम विकास 18-19वर्ष तक हो जाता है।
- वुडवर्थ के अनुसार 15 से 20 वर्ष की आयु में बालक कि बुद्धि का अधिकतम विकास हो जाता है।
- क्रो एंड क्रो के अनुसार 26 वर्ष कि आयु तक बालक कि बुद्ध का अधिकतम विकास हो जाता है।
किशोरावस्था में संवेगात्मक विकास
- इस अवस्था में प्रेम, क्रोध व सहयोग संवेग अधिक प्रभावी हो जाता है।
- वुडवर्थ के अनुसार व्यक्ति की उत्तेजित अवस्था ही संवेग होते है।
- राॅस के अनुसार संवेग चेतना की वह अवस्था होती है जिसमें रागात्मक तीव्रता पाई जाती है।
- वैलेंटाइन के अनुसार संवेग किसी के प्रति लगाव का विशेष भाव है।
- ब्रिजेज के अनुसार बालक में जन्म के समय पहला संवेग उत्तेजना होता है।
- जन्म से लेकर 2 वर्षों में भारत में सभी संवेग पैदा हो जाते हैं।
- शैशवावस्था में संवेगो की तीव्रता अधिक होती है।
- लगभग ढाई से 3 वर्ष की अवस्था में बालक में भय रूपी संवेग का पूर्ण विकास हो जाता है।
- जॉन्स के अनुसार 2 वर्ष का बालक सांप को भी पकड़ सकता है।
- बाल्यावस्था में संवेग क्षणिक होते है।
- किशोरावस्था में संवेग स्थिर होने लगते हैं।
किशोरावस्था में सामाजिक विकास
- किलपैट्रीक ने किशोरावस्था को जीवन का सबसे कठिन काल कहा है।
- काॅलसनिक के अनुसार किशोरावस्था के बालक प्रोढो को अपने जीवन कि बाधा समझते है।
- राॅस के अनुसार किशोरावस्था के लोग सेवा भाव उतपन्न होता है।
किशोरावस्था में बालक कि विशेषताएँ
- आत्म सम्मान का भाव उतपन्न होना - इसके अंतर्गत बालक मे स्वयं के सम्मान का भाव उतपन्न होने लगता है।
- आर्थिक सुरक्षा कि भावना- इसके अंतर्गत बालक अपने आप को आर्थिक रूप से सुरक्षित करने के लिए लिए सोचने लगता है।
- आत्म सुरक्षा कि भावना- इसके अंतर्गत बालक मे यह भावना उतपन्न हो जाती हैं कि उसकी सुरक्षा वह स्वयं कर सकता है।
- स्वतंत्रता का भाव- इसके अंतर्गत बालक मे यह भाव उतपन्न हो जाता है कि वह स्वतंत्र रहे उस पर कोई रोक ना हो।
- परिपक्वता- किशोरावस्था में बालक शारीरिक, मानसिक एवं नैतिक रूप से पूर्ण रूप से परिपक्व हो जाता है।
- दिखावट - किशोरावस्था में बालक दिखावट करना शुरू कर देता है।
- वीर पुजा - किशोरावस्था में बालक किसी न किसी को अपना आदर्श मानते लग जाता है फिर वह उसी कि तरह व्यवहार करने का प्रयास करता है।
- दिवास्वप्न - किशोरावस्था में बालक कोरी कल्पनाए करने लग जाता है जैसे मे ये करूंगा वो करूंगा।
- विषमलिंगी से मित्रता- किशोरावस्था के बालक विषमलिंगी के साथ मित्रता करना पसन्द करते है।
- नैतिक विकास- किशोरावस्था में बालक मे नैतिक विकास हो जाता है जैसे बडो का आदर करना।
- संवेग स्थिरता - किशोरावस्था के प्रारंभ में संवेग उग्र होते हैं किंतु उत्तरकाल मे संवेग स्थिर हो जाते है।
- विरोधी भाव - किशोरावस्था में बालक किसी भी परिस्थिति में किसी के भी विरोधी बन सकते है।
बालक का नैतिक विकास
- नैतिक विकास का सिद्धांत अमेरिकी मनोवैज्ञानिक कोहलबर्ग ने दिया था। 1984 मे इन्होने द साइकोलोजी ऑफ मोरल डेवलपमेंट नामक पुस्तक प्रकाशित की, हैंज की दुविधा इनकी प्रसिद्ध कहानी है।
कोहलबर्ग ने नैतिक विकास कि 3 अवस्थाए बताई है।
1) पूर्व परम्परागत/प्राक रुढिवादी अवस्था
- समय - 3 से 9 वर्ष
कोहलबर्ग ने इस अवस्था के 2 चरण बताए है।
- दण्ड/आज्ञापालन उन्मुख्ता - इसके अंतर्गत इन्होने माना है 3-6 वर्ष की आयु मे बालक दण्ड के भय से या आज्ञापालन के लिए नैतिक आचरण करता है। जैसे - शिक्षक ने बोला माता पिता को प्रणाम करना तो वह बालक दण्ड के भय से प्रणाम करेगा।
- साधनात्मक उन्मुख्ता- इसके अंतर्गत 6-9 वर्ष का बालक किसी लालच के कारण नैतिक आचरण करता है जैसे - यह करेगा तो टाॅफी मिलेगी तो वह टाॅफी के लिए नैतिक आचरण करता है।
2) परम्परागत या रुढिवादी अवस्था
- समयावधि- 9-15 वर्ष
कोहलबर्ग ने इस अवस्था के 2 चरण बताए है।
- उत्तम बालक अच्छी बालिका उन्मुख्ता- इसके अंतर्गत उन्होंने माना कि 9 से 12 वर्ष की आयु के बालक स्वयं की प्रशंसा के लिए नैतिक आचरण प्रकट करता है जैसे- यदि हम उसे कहे की अच्छा बालक है तो वह हमारी हर बात मानेगा।
- सामाजिक व्यवस्था उन्मुख्ता- इसके अंतर्गत उन्होंने माना की 13 से 15 वर्ष की आयु तक के बालक मे सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने का नैतिक गुण पाया जाता है।
3) उत्तर परंपरागत या पश्च रूढ़ीवादी
- समयावधि- 15 वर्ष से अधिक
कोहलबर्ग ने इस अवस्था के 2 चरण बताए है।
- सामाजिक बंधन की उन्मुख्ता - इसके अंतर्गत उन्होने माना की 15 से 18 वर्ष की आयु तक का बालक सामाजिक रीति रिवाज एवं परंपराओं से बंधकर ही नैतिक आचरण करता है।
- सार्वत्रिक नीति उन्मुख्ता- इसके अंतर्गत उन्होंने माना की 18 वर्ष से अधिक की आयु का बालक भी सामाजिक बंधनों मैं बंद कर नैतिक आचरण करता है किंतु वह अंधविश्वासों से बाहर निकलकर नैतिक आचरण करने का प्रयास करता है वह अंधविश्वासों को नहीं मानता है एवं नए व्यवहार को अपनाने का प्रयास करता है।
वंशक्रम एवं वातावरण
वंशक्रम
- पीढी दर पीढी माता - पिता से प्राप्त होने वाले लक्षण एवं विशेषताएं वंशक्रम कहलाता है।
- बालक के विकास के संदर्भ में वंशक्रम का अध्ययन सर्वप्रथम 19 वी सदी मे फ्रांसिस गार्डन ने किया था।
- जेम्स ड्रेवर के अनुसार - बालक मे पाई जाने वाली शारिरीक एवं मानसिक विशेषताओ का योग ही वंशक्रम है।
- वुडवर्ड के अनुसार बालक का विकास उसके वंशक्रम एवं वातावरण का गुणनफल होता है।
वंशक्रम कि विकास मे भुमिका
- लिंग का निर्धारण
- रंग रूप एवं लंबाई
- बुद्धि कि विकास
- कार्य व्यवहार एवं परम्परागत व्यवसाय
- हमारी मानसिकता के निर्माण मे
- मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य मे
- परिपक्वता का विकास
- संवेगात्मक विकास पर प्रभाव
- नैतिक विकास पर प्रभाव
- अभिवृत्ति (नजरिया) पर प्रभाव
- बालक के व्यवहार पर प्रभाव
वातावरण
- हमारे चारो ओर फैला हुआ भौतिक एवं जैविक परिवेश ही वातावरण है।
- वुडवर्ड के अनुसार वे सभी तत्व वातावरण है जो व्यक्ति को जीवन के प्रारंभ से ही प्रभावित करने लगते है।
- प्रो श्रीवास्तव एवं राव के अनुसार वे सभी भौतिक परिस्थितियां जो जीव या जीवन के लिए स्पन्दन का कार्य करती है वातावरण कहलाती है।
- राॅस के अनुसार वातावरण से आशय उन बाह्य शक्तियो से है जो हमे जीवन पर्यन्त प्रभावित करती है।
वातावरण कि विकास मे भुमिका
- लिंग के अनुसार प्रभाव- वातावरण का लिंग के अनुसार भी प्रभाव पड़ता है जैसे वातावरण का लिंग पर प्रभाव यह है कि बचपन में बालक धीमी गति से एवं बालिका तीव्र गति से बड़ी होती है जबकि किशोरावस्था में बालक बालिका की तुलना में तीव्र गति से बड़ा होता है।
- आयु के अनुसार वातावरण का विकास पर प्रभाव
- जन्म स्थान के कारण विकास पर प्रभाव
- जन्म क्रम के कारण विकास पर प्रभाव - इससे अंतर्गत एक ही माता-पिता से जन्मे अलग-अलग बालों को का क्रम भी उसके विकास पर प्रभाव डालता है।
- परिवार का बालक के विकास पर प्रभाव
- समाज का बालक के विकास पर प्रभाव
- मित्र मंडली का बालक के विकास पर प्रभाव
- बालक के स्वास्थ्य का प्रभाव
- धार्मिक संस्थाओं का बालक के विकास पर प्रभाव
- खेल मैदान का प्रभाव
- संस्कृति का प्रभाव
- मीडिया का प्रभाव
- विद्यालय का प्रभाव
- पोषण का प्रभाव
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