मानव व्यवसाय: प्रमुख प्रकार
मनुष्य मानव भूगोल के अध्ययन का केन्द्र बिन्दू है। वह एक क्रियाशील प्राणी है और अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विभिन्न प्रकार की क्रियाएँ करता है। मनुष्य की जिन क्रियाओं से आर्थिक वृद्धि होती है, उन्हें आर्थिक क्रियाएँ कहते हैं। मनुष्य की आर्थिक क्रियाओं पर भौतिक व सांस्कृतिक वातावरण का प्रभाव। पड़ता है। विश्व के विभिन्न प्रदेशों में भौतिक व सांस्कृतिक वातावरण की परिस्थितियाँ भिन्न होने के कारण मनुष्य की आर्थिक क्रियाएँ भी भिन्न भिन्न होती है। उदाहरणतः मनुष्य वनों में एकत्रीकरण, आखेट व लकड़ी काटने का कार्य करता है, घास के मैदानों में पशुचारण कार्य करता है, उपजाऊ मैदानी भागों में कृषि कार्य करता है, जल में मछली पकड़ता है और खानों से खनिज निकालता है। इसके अलावा वह अनुकूल परिस्थितियों में वस्तु विनिर्माण उधोग, परिवहन या व्यापार जैसी आर्थिक क्रियाओं में व्यस्त है। जीवन-यापन के लिए की जाने वाली आर्थिक क्रियाओं को व्यवसाय कहते हैं।)
मानव व्यवसायों का विकास एवं बदलती प्रकृति
आदिम मानव अपनी उदरपूर्ति जंगली जानवरों के शिकार एवं वनोत्पादों 'करता था। मानव घुमक्कड़ था। भोजन प्राप्ति में हमेशा अनिश्चितता बनी रहती थी। धीरे-धीरे मानव के बौद्धिक विकास के कारण वह उपयोगी जानवरों को पालने लगा। मानव समूह बनाकर पशुपालन करने लगा। पशु की चारे की पूर्ति के लिए वह ऋतु-प्रवास करने लगा। मानव की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति पशु उत्पादों से होने लगी। कृषि ने मानव को स्थायीकरण के लिए प्रेरित किया। मानव एक जगह बस्तियाँ बनाकर रहने लगा वह उपजाऊ नदी मैदानों में कृषि कार्य करने लगा। प्राचीन सभ्यताओं का विकास इन्हीं नदी घाटियों में हुआ। भारत की सि घाटी सभ्यता, चीन की हवारहो नदी घाटी सभ्यता, मिस्र की नील नदी घाटी सभ्यता व दजला-फरात नदियों के बीच पन मेसोपोटामिया सभ्यता कृषि-क्रियाओं के विकास के साथ है पनपी ।
पुर्नजागरण काल में खोज, अन्वेषण व तकनीकी विकास क साथ ही आर्थिक विकास ने गति पकड़ी। 18 वीं सदी में जीवाश्म ईंधन की खोज के बाद विश्व में खनन व उद्योग जैसी आर्थिक गतिविधियों का विस्तार हुआ। व्यापार व वाणिज्य का विकास हुआ नगरीकरण बढ़ा जिससे सेवा कार्यों में भी लोग आने लगे। इस प्रकार हम देखते है कि मानव के व्यवसायों के विकास का एक क्रम पाया जाता है। इस विकास क्रम को काल के अनुसार निम्न प्रकार के जा सकता है।
प्रागैतिहासिक काल
इस काल में मानव जंगली जानवरों का शिकार करता था तथा जंगलो से कंद-मूल फल संग्रहण करता था। इस काल में सीमित जनसंख्या व सीमित आवश्यकताएं थी। मानव जंगली अपस्था में ही रहता था। शिकार नुकीले पत्थरों व लकड़ी के डण्ड से करता था। इस काल में शिकार में कुत्ता मानव का सहायक बना।
धीर-धीरे मानव उपयोगी जानवरों को पालतू बनाकर पालने लगा। जानवरों से मानव को दूध, दही, माँस, चमड़ा, हड्डियाँ आदि उपयोगी चीजें मिलने लगी। पशुओं के चारे की कमी की पूर्ति हेतु घुमक्कड़ जीवन जीता रहा। अस्थायी आवास (तम्बू) बनाकर छोटे-छोटे समूहों मे रहने लगा। उपयोगी पौधों के बीजों को बोकर उसने खेती करना प्रारम्भ किया। वह झुमिंग कृषि करने लगा। फसलों व पालतु जानवरों की देखभाल व सुरक्षा के लिए टहनियों, पत्तियों व जानवरों की खालों की झोपड़ियों बनाकर रहने लगा। नवपाषाण काल मे मनुष्य ने पहिये का आविष्कार किया। इस काल तक मानव ने मिट्टी से बर्तन बनाने की कला सीख ली थी।
(ब) प्राचीन काल
इस काल मे कृषि व पशुपालन जैसी आर्थिक क्रियाओं के विकास के साथ मानव के जीवन में स्थायित्व आया। उसकी प्राथमिक आवश्यकताओं की सुगमता से पूर्ति होने लगी। शेष बचे समय में वह अन्य कलाओं का विकास करने लगा। लोहा, ताँबा, व काँसा जैसे मजबूत धातुओं की खोज की, जिससे वह उपयोगी हथियार व सामान बनाने लगा। हल व बैलों की मदद से कृषि करने लगा। फसलों को सिंचाई के रूप में पानी देना सीख लिया। इसी काल में ईसा से लगभग 2500 वर्ष पूर्व मोहनजोदड़ो व हडप्पा सभ्यता सिंधु नदी घाटी में विकसित हुयी। नगर नियोजन व भवन निर्माण की उत्कृष्ट कला का उदाहरण इस सभ्यता की खुदाई में देखने को मिला है। मिस्र के पिरामिड उस काल की तकनीकी उन्नति के सूचक है। इस काल में कृषि के साथ-साथ कुटीर उद्योगों का भी तेजी से विकास हुआ। विभिन्न तैयार सामानों का आपसी व्यापार इस काल मे प्रारम्भ हो गया था। यूनानी व रोमन सभ्यताओं मे नगरीय सभ्यताएँ पनपी।
(स) मध्यकाल
(600 ईस्वी से 1500 ईस्वी के बीच की अवधि को मध्यकाल के अन्तर्गत शामिल किया जाता है। यूरोप में इस काल में मानव व्यवसायों में विविधता बढ़ी। इस काल में जागीरदारी व सामंतवादी प्रथा का प्रचलन था। कृषि का भी उत्तरोतर विकास होता गया। बढ़ती शिक्षा, व्यापार तथा सांस्कृतिक विकास के कारण बड़े-बड़े नगरों का विकास हुआ। व्यापार में वस्तुओं का विनिमय होता था। ग्रामीण क्षेत्रों से कृषि उत्पाद नगरों में एवं नगरों से निर्मित माल ग्रामीण क्षेत्रों में आता था। यूरोप में धार्मिक विचारों के प्रभुत्त्व व वैचारिक स्वतंत्रता के दमन के कारण तकनीकी विकास अधिक नहीं हो सका। इसी काल में भारत में व्यावसायिक, कृषि, कुटिर उद्योग एवं व्यापार का सर्वाधिक विकास हुआ। भारत इस दृष्टि से विश्व का प्रतिनिधित्व करता था।
(द) आधुनिक काल
15वीं सदी से वर्तमान समय तक की अवधि को आधुनिक काल माना जाता है। इस काल में मनुष्य के व्यवसाय अपने चरमोत्कर्ष तक पहुँच गये। तकनीकी विकास, खोज व आविष्कारों के कारण आधुनिक विकसित मानव व्यवसायों का उदय हुआ। इस काल में मानव प्राथमिक व्यवसायों की तुलना में द्वितीयक, तृतीयक चतुर्थक व पंचम व्यवसायों से जुड़ने लगा। इसी युग मे औद्योगिक क्रांति आयी जिसके कारण अधिकतर आर्थिक क्रियाएँ स्वचालित मशीनों के द्वारा संचालित होने लगी। 19वीं शताब्दी से कृषि मे उन्नत बीजों, रसायनों, कीटनाशक दवाओं व उन्नत मशीनों का उपयोग होने लगा। पशुपालन व मत्स्य व्यवसाय विस्तृत व वाणिज्यक स्तर पर स्वचालित मशीनों द्वारा किया जाने लगा। औद्योगिक क्रियाओं के लिए वृहत् स्तर पर विभिन्न खनिजों जैसे लौह अयस्क, ताँबा, जस्ता व सीसा आदि का खनन वैज्ञानिक रीति से होने लगा। ऊर्जा के विभिन्न साधनों से ऊर्जा की प्राप्ति के कारण वृहत् स्तर पर उद्योगों में विभिन्न वस्तुओं का निर्माण होने लगा विकास के उच्च स्तर पर पहुँचे विकसित देशों के लोग चतुर्थक व पंचम व्यवसायों से अधिक जुड़े हैं।
मानव व्यवसायों का वर्गीकरण
मानव की जीविका उपार्जन की विधियों और आर्थिक क्रियाओं को वर्तमान में पाँच वर्गों में बाँटा जाता है। यह विभाजन पृथ्वी के प्राकृतिक संसाधनों से सतत दूरी बढ़ने के आधार पर किया गया है।
(1) प्राथमिक व्यवसाय : आखेट, संग्रहण, कृषि, पशुपालन, खनन आदि।
(2) द्वितीयक व्यवसाय विनिर्माण, निर्माण, ऊर्जा उत्पादन, प्रसंस्करण व अन्य निर्माण
(4) चतुर्थक व्यवसाय सूचना, शोध प्रबन्धन, शिक्षा स्वास्थ्य एवं सुरक्षा |
(5) पंचम व्यवसाय कार्यकारी निर्माणकर्त्ता, अनुसंधान, सरकार, कानूनी व तकनीकी सलाहकार ।
किसी भी अर्थव्यवस्था में विभिन्न व्यवसायों में संलग्न लोगों का ऐतिहासिक विकास क्रमिक चरणों में होता है। स्पष्ट है कि प्राचीन काल में लोग मुख्यतः प्राथमिक व्यवसायों से जुड़े थे। औद्योगिक क्रान्ति के समय द्वितीयक व्यवसायों में तथा वर्तमान में तृतीयक, चतुर्थक व पंचम व्यवसायों की और लोगों का रुझान बढ़ा है।
1. प्राथमिक व्यवसाय
जिन व्यवसायों में मनुष्य प्रकृति प्रदत्त संसाधनों भूमि, जल, वनस्पति एवं खनिज पदार्थों आदि का सीधा उपयोग करके अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है, उन्हें प्राथमिक व्यवसाय कहते है। इनका सीधा सम्बन्ध प्राकृतिक वातावरण की दशाओं से होता है। इन व्यवसायों में भोजन व कच्चे माल का उत्पादन होता है।
अधिकांश प्राथमिक व्यवसाय सरल, परम्परागत और आदिवासी आर्थिक व सामाजिक संरचना के प्रतीक है। विश्व में प्राथमिक आर्थिक क्रियाओं में संलग्न व्यक्तियों का वितरण असमान है। विकसित देशों में 5 प्रतिशत से भी कम श्रमिक प्राथमिक क्रियाओं में लगे हुये है। जबकि विकासशील देशों में ये क्रियाएँ श्रम के बहुत बड़े भाग को रोजगार प्रदान करती है। अपवाद स्वरूप कनाडा दो प्राथमिक व्यवसायों लकड़ी काटना व पेट्रोलियम खनन के आधार पर विकसित देशों की कतार में खड़ा है। प्राथमिक क्रियाएँ बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि ये मानव जाति के लिए भोजन और उद्योगों के लिए कच्चा माल उपलब्ध कराती है। इन व्यवसायों ने मानव जाति का उसके अस्तित्व के लिए 95 प्रतिशत से अधिक समय तक पोषण किया है।
प्राथमिक व्यवसायों में निम्न व्यवसाय सम्मिलित होते हैं- (i) आखेट या शिकार, (ii) भोजन व वनोत्पाद एकत्रीकरण, (iii) लकड़ी काटना (iv) मछली पकड़ना. (v) पशुपालन, (vi) कृषि, (vii) खनन आदि।
संसार में भूमि उपयोग की भिन्नता की दृष्टि से प्राथमित व्यवसायों के प्रमुख प्रदेश निम्नलिखित हैं-
(i) उष्ण कटिबंधीय प्रदेश
(अ) विषुवतरेखीय आर्द्रदन (अमेजन-काँगो प्रकार)
(ब) उष्ण कटिबंधीय आर्द्र कृषि प्रदेश (पूर्वी भारत, पूर्वी ब्राजील)
(स) आर्द्र- शुष्क निम्न अंक्षाशीय सवाना (सूडान, भारत ब्राजील)
(द) उष्ण कटिबंधीय उच्च प्रदेश (इथोपिया प्रकार)
(य) मरूस्थल (सहारा, अरब, थार, मध्य एशिया, मंगोलिया, पश्चिमी आस्ट्रेलिया, कालाहारी)
(ii) समशीतोष्ण कटिबंधीय प्रदेश
(अ) समशीतोष्ण घास के मैदान (प्रेयरी व स्टैपी प्रकार)
(ब) भूमध्यसागरीय तुल्य प्रदेश
(स) उत्तरी चीन तुल्य प्रदेश
(द) समुद्री चक्रवातीय प्रदेश (प. यूरोप प्रकार)
(य) महाद्वीपीय चक्रवातीय प्रदेश (उत्तरी-पूर्वी संयुक्त राज्य अमेरिका प्रकार)
(र) शीतल महाद्वीपीय प्रदेश (पूर्वी यूरोप प्रकार)
(iii) शीत प्रदेश
(अ) शीतल वन (टैगा, साइबेरिया, कनाडा प्रकार)
(ब) टूण्ड्रा प्रदेश
(स) ऊँचे पर्वत
इन प्रदेशों में प्राथमिक व्यवसायों को प्राकृतिक संसाधन जैसे- जलवायु, भूमि की बनावट, मिट्टी व वनस्पति निश्चित करते है।
द्वितीयक व्यवसाय
द्वितीयक व्यवसाय के अन्तर्गत प्रकृति प्रदत्त संसाधनों का सीधा उपयोग नहीं होता है वरन् उन्हें परिष्कृत व परिवर्तित करके उन्हें अधिक उपयोगी व मूल्यवान बनाते हैं। अर्थात "प्रकृति प्रदत्त संसाधनों का सीधा उपयोग न करके, मनुष्य द्वारा परिष्कृत व परिवर्तित करके उसे उपयोगी योग्य बनाने सम्बन्धी क्रियाएँ। द्वितीयक व्यवसाय कहलाते है। द्वितीयक व्यवसायों में विनिर्माण, प्रसंस्करण व निर्माण की गतिविधियाँ शामिल है। उदाहरण के लिए लौह अयस्क से इस्पात, गेहूँ से आटा, कपास से सूती वस्त्र गन्ने से ) चीनी, लकड़ी से फर्नीचर व कागज बनाना आदि सभी द्वितीयक व्यवसाय के उदाहरण है। द्वितीयक व्यवसाय में निम्न व्यवसाय सम्मिलित किये जाते है।
(i) उद्योग धंधे, (ii) खाद्य प्रसंस्करण, (iii) निर्माण भवन, सड़क आदि, (iv) दुग्ध उद्योग, (v) विशेषीकृत कृषि।
द्वितीयक व्यवसायों को निर्धारित करने मे प्राकृतिक संसाधनों तथा सांस्कृतिक संसाधनों, दोनों का प्रभाव होता है इनको निर्धारित करने वाले कारक है- (i) कच्चा माल, (ii) शक्ति के संसाधन, (iii) परिवहन व संचार की सुविधाएँ, (iv) पूँजी. (v) बाजार, (vi) सरकारी नीतियाँ, (vii) श्रम व (viii) प्रौद्योगिकीय नवाचार आदि होते है।
3. तृतीयक व्यवसाय
इस व्यवसाय ने समुदायों को दी जाने वाली व्यक्तिगत तथा व्यवसायिक प्रत्यक्ष सेवाएँ सम्मिलित है। इसे सेवा श्रेणी' व्यवसाय भी कहते है। अधिकांश तृतीयक क्रिया-कलापों का निष्पादन कुशल श्रमिकों, व्यावसायिक दृष्टि से प्रशिक्षित विशेषज्ञों और परामर्श दाताओं द्वारा होता है। तृतीयक व्यवसायों में निम्न व्यवसाय सम्मिलित किये जाते है :
(1) परिवहन (2) व्यापार व वाणिज्य (3) संचार (4) सेवाएँ (बैंक, बीमा, पर्यटन इत्यादि)
इनको उस क्षेत्र के मनुष्यों के सांस्कृतिक स्तर तथा वैज्ञानिक व तकनीकी उन्नति के द्वारा निश्चित किया जाता है। एक विकसित अर्थव्यवस्था में बहुसंख्यक श्रमिक तृतीयक व्यवसायों से रोजगार पाते हैं। तृतीयक व्यवसायों में उत्पादन और विनिमय दोनों सम्मिलित होते है। उत्पादन में सेवाओं की उपलब्धता शामिल होती है जिनका उपयोग किया जाता है। सेवाओं के बदले में पारिश्रमिक लिया जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि तृतीयक क्रियाकलापों में मूर्त वस्तुओं के उत्पादन की बजाय सेवाओं का व्यावसायिक उत्पादन होता है। नलसाज, बिजली मिस्त्री, दुकानदार, डॉक्टर, वकील आदि का काम इसका उदाहरण है। विनिमय के अन्तर्गत परिवहन, व्यापार व संचार की सुविधाएँ सम्मिलित होती है। जिनका उपयोग दूरी को निष्प्रभावी करने के लिए किया जाता है।
सारणी 7.3 में तृतीयक आर्थिक क्रियाओं का वर्गीकरण प्रस्तुत किया गया है।
4. चतुर्थक व्यवसाय
जीन गॉटमैन अप्रत्यक्ष सेवाओं को चतुर्थक व्यवसाय की श्रेणी में शामिल करते हैं। विकसित अर्थव्यवस्थाओं में आधे से ज्यादा कर्मी ज्ञान के इस क्षेत्र में कार्यरत हैं।
सूचना आधारित तथा अनुसंधान व विकास आधारित सेवाओं से इस वर्ग का सम्बन्ध है। कार्यालय भवनों, शिक्षण संस्थाओं अस्पतालों, रंगमंचों, लेखा कार्य और दलाली की फर्मों में काम करने वाले कर्मचारी अप्रत्यक्ष वर्ग की सेवाओं से सम्बन्ध रखते हैं। चार्ट 7. 1 में मानव के सेवा सेक्टर के प्रकारों का वर्गीकरण प्रस्तुत है।
आरेख 7.1 मे आर्थिक त्रि-खण्ड सिद्धान्त के आधार पर आर्थिक विकास के मानव व्यवसायों मे आय बदलाव को दर्शाया गया है।
5. पंचम व्यवसाय
इसमें ये सेवाएँ आती है जो नवीन व वर्तमान विचारों की रचना व उनके पुनर्गठन की व्याख्या, आँकड़ों की व्याख्या व प्रयोग तथा नई प्रौद्योगिक के मूल्यांकन पर केन्द्रित होती है। रि व्यवसाय भी तृतीय व्यवसाय का एक और उप-विभाग है जिसमें विषय विशेषज्ञ, निर्णयकर्ता, परामर्शदाता व नीति निर्धारित लोगों को शामिल किया जाता है। उन्नत अर्थव्यवस्थाओं की संरचना में इनका महत्व इनकी संख्या से कहीं अधिक होता है।
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