". विश्व की प्रमुख जनजातियाँ ~ Rajasthan Preparation

विश्व की प्रमुख जनजातियाँ


 विश्व की प्रमुख जनजातियाँ 

पृथ्वी पर मानव को रहते हुए लाखों वर्ष बीत चुके है। इस लम्बे काल में मानव ने प्राकृतिक वातावरण के साथ समायोजन करना सीखा है। मानव ने तकनीकी विकास के साथ-साथ वातावरण समायोजन में तीव्र गति से परिवर्तन किया है। विश्व मे आज भी कुछ ऐसे क्षेत्र है जिनमें कई जनजातियाँ आदिम ढंग से अपना जीवन यापन कर रही है। उनकी जीवन शैली में विशेष बदलाव नहीं आया है। इस प्रकार की जनजातियाँ शीत प्रदेशों, घने जंगलों, उष्ण एवं शुष्क मरूस्थलों, घास के मैदानों एवं दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों में निवास करती है। इनकी अपनी विशिष्ट संस्कृति, सामाजिक ढाँचा, परम्पराएँ, रीति-रिवाज एवं मान्यताएँ है। इस जनजातियों की अर्थव्यवस्था का आधार खाद्य संग्रहण, आखेट, घुमक्कड़, पशुचारण व आदिम ढंग की निर्वाहन कृषि है। ये विभिन्न प्राकृतिक दशाओं में प्राचीन काल के मानव व वातावरण के सम्बन्ध की सूचक है। आधुनिक विकसित सभ्यताओं से इनका सम्पर्क लगभग नगण्य है।

जनजातियाँ वास्तव में जैविक समूह का नहीं वरन् सामाजिक व सांस्कृतिक समूह का प्रतिनिधित्व करती है। जनजाति लोगों का वह समूह है, जो सामाजिक रीति रिवाजों एवं सांस्कृतिक परम्पराओं द्वारा एक दूसरे से घनिष्ट रूप से सम्बन्धित है। विश्व की प्रमुख जनजातियाँ निम्न हैं:

1. ध्रुवीय व ठण्डे प्रदेशों की - एस्किमों, सैमोयड्स, याकूत जनजाति । 

2. विषुवत् रेखीय सघन वनों की। - पिग्मी, सेमांग, सकाई जनजाति ।

3. उष्ण व शुष्क कालाहारी मरूस्थल की। - बुशमैन जनजाति।

4. उष्ण कटिबंधीय घास क्षेत्रों की। - मसाई व बदू जनजाति ।

 5. समशीतोष्ण कटिबन्धीय घास क्षेत्रों की। - खिरगीज जनजाति ।

6. दुर्गम पहाड़ी व पठारी क्षेत्रों की। - भील, गौंड, संथाल, मीणा, नागा एवं अन्य जनजातियाँ ।

 इस अध्याय में हम विश्व की एस्किमों, बुशमैन तथा भारत की भील एवं गौंड़ जनजातियों का विस्तार से अध्ययन करेगें।

एस्किमो (Eskimos)

आर्कटिक प्रदेश में मानव आज भी विकास की प्रारंभिक अवस्था में है। आखेट, मछली पकड़ना व संग्रहण एस्किमों की आजीविका का मुख्य आधार है। एस्किमों का शाब्दिक अर्थ 'कच्चा माँस खाने वाला, तथा बर्फीले प्रदेश के निवासी के रूप मे होता है।

एस्किमों जनजाति मंगोल प्रजाति से सम्बन्धित है। एस्किमों का चेहरा सपाट एवं चौडा, त्वचा का रंग पीलापन लिए भूरा. बाल-भद्दे एवं काले, कद-मझला, नाक-चपटी, ऑंखे-गहरी, कत्थई एवं तिरछी होती है। इनका जबड़ा भारी, मुँह-चौड़ा तथा दाँत सफेद एवं मजबूत होते है। शरीर हष्ट-पुष्ट व पुट्ठे माँसल होते हैं।

ये घोर संकट काल में भी अपनी स्थिरता, गम्भीरता व विवेक को अडिग बनाये रखते है। ये स्वभाव से सरल व हँसमुख प्रकृति के लोग है।

 (i) निवास क्षेत्र

एस्किमों जनजाति प्रारम्भ से ही आर्कटिक व टुण्ड्रा प्रदेशों तक ही सीमित है। इस क्षेत्र में अलास्का से लेकर बेरिंग जल डमरूमध्य तक इनका विस्तार है। ये अलास्का, कनाडा, ग्रीनलैण्ड एवं उत्तरी साइबेरिया क्षेत्रों में रहते है। विस्तृत टूण्ड्रा प्रदेश में निवास करने वाले लोगों को उत्तरी कनाडा एवं ग्रीनलैण्ड मे एस्किमों, स्कैण्डिनेविया मे लैप्स तथा उत्तरी साइबेरिया मे समोयड्स याकूत. चकची व तुंग नाम से जाना जाता है। मानचित्र 2.1 में इस जनजाति के निवास क्षेत्रों को दर्शाया गया है।

निम्न तापमान, बर्फीली आँधियाँ एवं कम रोशनी युक्त तथा कठोर जलवायु में लगभग 10 लाख एस्किमों विगत दस हजार वर्षों से रह रहे हैं। इस प्रदेश में जाड़े की ऋतु बहुत लम्बी एवं ग्रीष्म ऋतु बहुत छोटी होती है। वार्षिक औसत तापमान 0° सैल्शियस से भी नीचे रहता है। पेड़ो के अभाव में यहाँ बर्फ की आंधियों चलती है। वर्षा हिम के रूप मे होती है। कठोर जलवायु के कारण वनस्पति का अभाव रहता है। केवल ग्रीष्म काल की अल्प अवधि में शैवाल काई, लाइकेन आदि रंग-बिरंगे फूलों की वनस्पति उग आती है। ध्रुवीय भालू लैमिंग, खरगोश, कस्तूरी मृग, कैरीबाऊ (रण्डियर) लोमड़ी भेड़िये, कुत्ते आदि इस क्षेत्र के प्रमुख प्राणिजात है। समुद्र में सील. हेल. वालरस (सी लॉयन) जैसी विशालकाय मछलियां पाई जाती है।

(ii) आर्थिक क्रिया कलाप

(अ) आखेट शिकार करना एस्किमो के जीविकोपार्जन का एक मात्र साधन है। ये शीत काल व ग्रीष्म काल में विभिन्न विधियों से शिकार करते हैं।

शीतकालीन आखेट -इस ऋतु में एस्किमों समुद्री तट के किनारे सील मछली का शिकार करते हैं। जब मछली बर्फ में बने छिद्रों में श्वास लेने आती है तब एस्किमों द्वारा रखी हड्डी की छड़ हिल जाती है। एस्किमो अपने हथियार हारफून से सील मछली का शिकार करते हैं। इसे माउपाक कहते हैं। माउपाक जिसका शाब्दिक अर्थ प्रतीक्षा करना होता है। शिकार की दूसरी विधि है जिसके अन्तर्गत शिकारियों द्वारा दो छिद्र बनाये जाते. है। एक छिद्र में एक व्यक्ति सील को चारा डालकर बुलाता है तथा दूसरे छिद्र में दूसरा व्यक्ति संकेत मिलते ही हारफून से शिकार कर लेता है। सील मछली न केवल भोजन प्रदान करती है वरन् जलाने के लिए भी देती है। सील की चर्बी अन्य जीवों की चर्बी की तुलना में तुरन्त व अधिक देर तक जलती है और ताप भी अधिक देती है। चित्र 2.1 में महिला द्वारा माउपाक विधि से तथा चित्र 2.2 में हारकून से खुले समुद्र में बसन्तकालीन आखेट को समझ सकते हैं।

बसन्तकालीन आखेट - मार्च में सील मछलियाँ श्वास लेने हेतु बाहर आकर धूप सेकने लगती है, उनका शिकार किया जाता है। बंसतकालीन आखेट को उतोक कहते है। ये शिकारी कुत्तों की मदद से सील मछलियों का शिकार करते हैं। इसमे चमड़े से बनी नाव को परिवहन के लिए काम में लेते है। जिसे कुयाक कहते है। ग्रीष्मकाल में एस्किमो लोग कैरियो (बाहरसियों) का धनुष-बाण से शिकार करते है। खरगोश बतख व चिड़ियों का शिकार हल्के भाले से फेंक कर करते है। रेडियर सम्पत्ति क सामाजिक स्तर का मापदण्ड भी है। एस्किमों लोगों के जीवन में सील मछली का अत्यधिक महत्त्व है। सील से खाने के लिए माँस कपड़े बनाने के लिए खाल, तम्बू बनाने के लिए खाल, इंधन के लिए चर्बी, स्लेज गाड़ी बनाने के लिए हड्डियों तथा धागे के रूप में ताँत प्राप्त होती है।

(ब) भोजन कच्चा माँस इनका प्रमुख भोजन है। भोजन का स्रोत सील, हेल, सी लॉयन है। छोटी मछलियो व स्थलीय जीव-जन्तुओं से भी भोजन प्राप्त होता है।

(स) वस्त्र एस्किमों के वस्त्र मुख्यतः कैरिबो की खाल से बने होते है। यह सील मछली की खाल की अपेक्षा अधिक गर्म एवं हल्के होते है। ध्रुवीय भालू के समूर से भी वस्त्र बनाये जाते है। वस्त्र बनाने का कार्य स्त्रियों करती है। स्त्री व पुरुष दोनों के वस्त्र एक समान ही होते है। एस्किमों जर्सीनुमा बोहदार वस्त्र जिसे तिमियाक कहते है, पहनते हैं। तिभियाक के ऊपर पहने जाने वाले कपड़े को अनोहाक कहते हैं? सील की खाल से बने जूतों को कार्मिक या मुक्लूक्स कहते है ।

(द) निवास गृह - इनके मकान बर्फ, पत्थर हड्डियों तथा खालों से बने होते हैं। शीतकाल में बर्फ के मकान को 'ग्लू' कहते हैं (चित्र 2.3) 1/5-6 फिट भूमिगत एवं 2-3 फीट ऊपर उठे लकड़ी एवं हवेल की हड्डियों के ढोंचे से बने मकान को कर्मक (Karmak) कहते है। इसका प्रवेश द्वारा एक भूमिगत सुरंग से जुड़ा होता है। ग्रीष्म काल में शिकार के दौरान ये लोग अस्थायी तम्बू में रहते है (चित्र 24)1

(थ) यंत्र एवं उपकरण-

कयाक - चमड़े से बनी एक प्रकार की नाव जो 5 मीटर लम्बी तथा 1.5 मीटर चौड़ी होती है।

ऊमियाक -बड़ी नाव जो हेल मछली के शिकार के दौरान काम में ली जाती है।

हारफून- (सील मछलियों के शिकार के लिए प्रयुक्त्त 1.2 से 1.5 मीटर लम्बा भालानुमा हथियार जो रस्सी से बंधा होता है।

स्लेज - बर्फ पर चलने वाली पहिये विहीन गाड़ी जिसे कुत्ते व रेण्डियर खींचते है। (चित्र 2.5) यह स्लेज गाड़ी वालरस की हड्डियों से बनी होती है । ]

(iii) समाज एवं संस्कृति

ये लोग छोट-छोटे समूहों में रहते हैं। इनका जीवन घुमक्कड़ है। आदिम ढंग से जीवन यापन करते है। पितृवंशीय समाज है। इनमें बहुपत्नी प्रथा प्रचलित है। ग्रीष्मकाल में कई उत्सव व समारोह मनाएँ जाते है। एस्किमों लोग जादू टोनों में भी विश्वास रखते है। ये एस्किमो एल्यूट भाषा बोलते है। कठोर शीत ऋतु में भोजन की कमी होने पर बूढ़े व अशक्त व्यक्ति आत्महत्या करते हैं।

(iv) वातावरण समायोजन

एस्किमों जनजाति में वातावरण समायोजन की दक्षता अपने आप में एक अनूठा उदाहरण हैं। एस्किमों हिम का ही प्रयोग कर हिम निवास (इग्लू) बनाते है। स्लेज गाड़ी बनाने के लिए वालरस की हड्डियों को काम में लेते हैं। हिम झंझाओं तथा हिम पर सूर्य की किरणों के पड़ने से होने वाली चमक से आँखो को बचाने के लिए आँख कवच का उपयोग करते हैं।

(v) आधुनिक संस्कृति से सम्पर्क

एकाकी ध्रुवीय प्रदेशों में निवास करने वाली इस जनजाति का 1960 के पश्चात् यूरोपियन एवं अमेरिकी लोगों से सम्पर्क बढ़ा है। अब ये लोग आग्नेय अस्त्रों, बन्दूक आदि का प्रयोग करने लगे। है। कयाक के स्थान पर मोटर चालित नाव व स्लेज के स्थान पर स्नो स्कूटर का प्रयोग बढ़ा है। पारम्परिक वातावरण का रूपान्तरण तीव्र गति से होने लगा है। फर, समूर आदि के व्यापार से मुद्रा मिलने से उनके पहनावे व रहन-सहन की विधियों में भी बदलाव आया है।

अमेरिकी सरकार द्वारा प्रदत्त स्वास्थ्य सुविधाओं के बढ़ने एवं भरण-पोषण सरल होने से एस्किमों लोगों की जनसंख्या कनाडा एवं अलास्का में निरन्तर बढ़ रही है। इनकी संख्या वृद्धि से टुण्ड्रा के तटीय क्षेत्रों के पर्यावरण पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। संभव है कि 21 वीं शताब्दी में एस्किमों का जनजातीय परिवेश मात्र ऐतिहासिक रह जाये।

बुशमैन (Bushman)

लगभग 20 हजार वर्षों से अफ्रीका के कालाहारी मरूस्थल के निवासी बुशमैन कोसॉन, रवी व बसारवा के नाम से भी जाना जाता है। ये संख्या मे लगभग 10 हजार रह गये है। परम्परागत रूप से ये 20 अथवा उससे कम के समूह मे विचरण करते है। ये मुख्यतः आखेटक व खाद्य-संग्रहक है।

ये लोग नाटे कद के होते हैं तथा निग्रीटो प्रजाति के समरूप है। इनके जबड़े तथा मोटे होठ बाहर निकले हुये नहीं होते है। इनकी आँखें चौड़ी नहीं होती है। इनके नितम्ब बहुत भारी होते है।

(6) निवास क्षेत्र

बुशमैन लोगों का निवास क्षेत्र अफ्रीका महाद्वीप में 18° दक्षिणी अक्षांश से 24° दक्षिणी अक्षांश के मध्य बेचुआनालैण्ड में स्थित है। पशु जनित भोजन की आपूर्ति में यह प्रदेश अधिक घनी है। आज बुशमैन मुख्यतः कालाहारी मरूस्थल और दक्षिणी पश्चिमी अफ्रीका के उपोष्ण घास के मैदानी भागों में फैले है। ये दक्षिणी अफ्रीका, बोत्सवाना, नामिबिया व अंगोला देशों में निवास करते है। मानचित्र 2.2 में बुशमैन जनजाति के निवास क्षेत्र को दर्शाया गया है।

कालाहारी मरूस्थल का धरातल उबड़-खाबड़ है। यहाँ की जलवायु अर्द्ध उष्ण कटिबंधीय है। यहाँ वर्षा का औसत 25 सेमी से भी कम है। तापमान वर्ष भर ऊँचा रहता है परन्तु रातें अपेक्षाकृत ठण्डी रहती है। यहाँ ग्रीष्म काल लम्बा तथा शीतकाल बहुत छोटी अवधि का होता है।

बुशमैन निवास क्षेत्र में घास के मैदान व कंटीली झाड़ियाँ पायी जाती है। शुष्क क्षेत्रों में एक प्रकार का तरबूज (त्यामा) होता है, जिसे जल पूर्ति के लिए मानव व पशु सभी चाहते है। यहाँ अनेक प्रकार के शाकाहारी व माँसाहारी प्राणिजात पाये जाते है। कई तरह के हिरण, बड़े कोदू, स्टेन बॉक, ग्नू खरगोश, जिराफ, शुतुरमुर्ग जेबरा, जंगली बिल्ली, वन बिलाव, लकड़बग्घा और सियार आदि पाये जाते है। प्रसिद्ध एटोशा राष्ट्रीय उद्यान भी इसी प्रदेश में अवस्थित है।

(ii) आर्थिक क्रिया-कलाप

(अ) आखेट बुशमैन मूल रूप से आखेटक हैं। ये तीर-कमान व भाले से शिकार करते है। बड़े शिकार को जाल में फँसाने के लिए विभिन्न तरीके काम में लेते हैं। ये शिकार को कीचड़ में धँसाकर फंदों में फँसाकर गड्डों में गिराकर व विषाक्त जन पिलाकर मारते हैं। प्रत्येक परिवार स्वयं अपना भोजन प्राप्त - करता है। ये लोग जन्तुओं की बोली की नकल करने में निपुण होते है।

(ब) भोजन- बुशमैन सर्वभक्षी होते है। वे खाते भी ज्यादा है। एक बुशमैन आधी भेड़ तक एक बार में खा जाता है। शिकार मछली, पौधो की जड़े, बैरी तथा शहद इनके भोजन के मुख्य अंग है। दीमक चीटियाँ और उनके अण्डे इनके प्रिय भोज्य पदार्थ हैं। ये लोग इस बात की परवाह नहीं करते कि इनका भोजन ताजा है या बासी । उष्ण जलवायु के कारण भविष्य के लिए भोजन को संचित करने पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है।

(स) वस्त्र - बुशमैन के वस्त्र बहुत कम होते है। पुरुष एक... तिकोनी लंगोट पहनता है। जिसकी नोक टांगो के बीच होकर पीछे की और जाती है। स्त्रियाँ सामने व पीछे की और कमर से बाँधकर चमड़े की चौकोर एप्रन लटका कर पहनती है। स्त्रियों के वस्त्रों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण वस्त्र चोंगा होता है। जिसे स्थानीय भाषा मे क्रोस कहा जाता हैं। यह वस्त्र व बिस्तर बंद दोनों ही होता है। इसी क्रास में वे अपने शिशु एवं संग्रहित वस्तुओं को लपेट कर लाती है। बुशमैन चमड़े की टोपी एवं जूतों को भी काम में लेते हैं।

(द) निवास गृह ये चट्टानी गुफाओं में शरण लेते है। खुले में कड़ी टहनियों, घास व जानवरों की खालों से गुम्बदाकार झोपड़ी बनाते है। बुशमैन लोगो के अल्पकालीन गाँव बर्फ में लगभग 8 से 10 झोपड़ियाँ होती है।

(य) औजार एवं बर्तन - तीर-कमान चुकीला डंडा, भाला, बर्छा, अग्निदण्ड इनके प्रमुख औजार हैं। ये बिष बुझे तीरों का प्रयोग करते हैं। शुतुरमुर्ग और जिराफ के पैर की हड्डियों को घिसकर नुकीला बनाकर तीर के अग्र भाग पर लगाते है। तीर-कमान से लगभग 60 मीटर की दूरी पर स्थित शिकार को भी मार सकते है। पेड़ों के छालों से रस्से बनाते है। चित्र 2.8 में बुशमैन द्वारा प्रयुक्त विभिन्न औजार प्रदर्शित हैं।

इनके पास बर्तन बहुत कम होते हैं। शुतुरमुर्ग के का उपयोग जल रखने व आभूषण बनाने में करते है। हिरण की खाल की बेली लकड़ी के प्याले अन्र्त है।

(iii) समाज संस्कृति

सामाजिक समुदाय के अन्तर्गत बुशमैन लोगों का एक छोटा सा दल होता है। बुशमैन की धार्मिक परम्पराओं, संस्कारों व कलाओं में प्राणियों व प्रकृति का केन्द्रीय स्थान होता है। ये लोग जादू-टोना तथा भूत-प्रेतों में विश्वास करते है। मुशमैन दो भगवानों में विश्वास करते है। एक जो पूर्व में रहता है तथा दूसरा जो पश्चिम में रहता है। ओझा इन्हें बीमारियों व प्रेतात्माओं से बचाता है। इनकी चट्टानों पर की गयी पेंटिंग सर्व प्रसिद्ध है। वर्तमान में अण्डों की खोल के आभूषण, तीर-कमान, स्कर्ट आदि इनकी प्रमुख कॉफ्ट वस्तुएँ हैं।

(iv) वातावरण समायोजन

इनमें जीवित रहने की शक्तिशाली चेतना पायी जाती है। थोड़ा सामान, कम बच्चे तथा अपने सामान के बँटवारे के कारण ये लोग घूमते रहने की अबाधित स्वतंत्रता का उपयोग करते हैं। अकाल के समय बुशमैन स्त्रियाँ गर्भधारण करना बंद कर देती है। शिकार करते समय शिकार किये जाने वाले पशुओं की जातियों

की मादा एवं अल्प वयस्कों को हानि न पहुँचाने का ध्यान रखते है। ये लोग अग्नि जलाने के लिए कम से कम ईंधन का उपयोग करते है। शिकार किये गए पशु के प्रत्येक भाग को काम मे लेते है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि बुशमैन लोगों ने अपने प्राकृतिक वातावरण से समायोजन कर रखा है।

(v) आधुनिक संस्कृति से सम्पर्क

वर्तमान मे बुशमैन जनजाति के लोगों की जीवन शैली पर → बाह्य संस्कृति का प्रभाव पड़ रहा है। आजकल ये आखेट के साथ-साथ जल स्रोतों के निकट आदिम निर्वाह कृषि करने लगे है। ये लोग स्थानीय व्यापारियों के साथ वस्तुओं का विनिमय भी करते है। इनके पहनावे में भी भारी बदलाव आया है। बाँटू, हॉटेन्टॉट एवं यूरोपीय लोगों के आक्रमणों से बुशमैन लोगों की संख्या निरन्तर घटती जा रही है तथा आवास क्षेत्र संकुचित होते जा रहे हैं।

भील (Bhil)

राजस्थान की आदिवासी जनसंख्या की दृष्टि से भीलों का द्वितीय स्थान है। ऊँची पहाड़ियों पर रहने वाले भीलों को पालवी तथा मैदानों में रहने वाले भीलों को वागड़ी कहते हैं।

भील, संथाल व गौंड जनजातियों के बाद भारत में तीसरा सबसे बड़ा जनजाति समूह है। भील शब्द की उत्पत्ति द्वाविड़ियन भाषा के 'बीलू' से हुयी है। जिसका अर्थ है तीरंदाज। कुछ लोग भाषायी दृष्टि से इस शब्द की उत्पत्ति संस्कृत में क्रिया के मूल जिसका अर्थ भेदना, वध करना तथा मारना होता है, तीरन्दाजी में इनकी निपुणता के कारण माना जाता है। इनके सम्बन्ध में पुराणों में अनेक संदर्भ उपलब्ध है। भीलों की उत्पत्ति महादेव के पुत्र निषाद से हुयी है। निषाद ने पिता महादेव के बैल नंदी को मार था जिसे दण्ड स्वरूप पर्वतीय क्षेत्रों में निर्वासित कर दिया था महाभारत महाकाव्य में इनका सम्बन्ध एकलव्य से है रामायण काल में श्रीराम को शबरी ने सीता की खोज के दौरान दण्डकारण्य वन में बैर खिलाये थे। कर्नल टॉड के अनुसार ये तात्कालीन मेवाड़ राज्य की अरावली पर्वत श्रेणियों में रहने वाले लोग है जिन्होने महाराणा प्रताप की अकबर के विरूद्ध युद्ध में मदद की थी। ऐतिहासिक दृष्टि से इस जनजाति ने डगारिया (डूंगरपुर), बासिया (बाँसवाड़ा), कोटिया (कोटा) तथा देआवा (उदयपुर) पर शासन या था।

ये लोग नाटे होते है। इनका रंग गहरा काला तथा नाक चौड़ी होती है। आँखे लाल, बाल रूखे, जबड़ा कुछ बाहर निकला होता है। इनका शरीर सुगठित व सुडौल होता है। ये लोग परिश्रमी और ईमानदार होते है। चोरी करने को धार्मिक पाप मानते है। ये आजादी प्रेमी होते है।

(1) निवास क्षेत्र

भील दुर्गम एवं निर्जन पर्वतीय क्षेत्रों में निवास करते है। ये लोग अरावली, विन्ध्याचल व सतपुड़ा की पहाड़ियों और वन क्षेत्रों में रहते है। भारत में भील चार राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात तथा महाराष्ट्र में है। भीलों का मुख्य केन्द्रीकरण राजस्थान के - बाँसवाड़ा, डूंगरपुर, उदयपुर एवं चित्तौड़गढ़, मध्यप्रदेश के धार, झाबुआ व रतलाम, गुजरात के पंचमहल एवं बड़ोदरा में तथा महाराष्ट्र के औरंगाबाद, अहमदनगर, जलगाँव, नासिक एवं धुले जिलों में है। मानचित्र 2.3 में भील जनजाति के निवास क्षेत्र प्रदर्शित है।

इनके निवास क्षेत्रों की जलवायु मानसूनी है। इनके निवास्य 1. क्षेत्रों में लगभग 33 प्रतिशत भू-भाग पर वन पाये जाते है। अनाच्छादित पहाड़ियाँ, अपरदित मिट्टी व वनों की कटाई ने भीलों की बढ़ती जनसंख्या के सामने अनेक समस्याएँ खड़ी कर दी है।

(i) आर्थिक क्रिया-कलाप

भील वनों एवं पहाड़ी प्रदेशों के एकांत प्रदेशों में निवास करने के कारण इनकी आजीविका का मुख्य आधार खाद्य संग्रहण आखेट, आदिम कृषि एवं पशुपालन है। ये लोग वनों से (विशेषकर स्त्रियों) कंद-मूल, फूल-फल एवं पत्तियाँ एकत्रित करती हैं। जंगली पशुओं एवं पक्षियों का शिकार करते है। कृषि में खाद्यान्न् साग सब्जियाँ एवं चारे की फसलें पैदा करते हैं। भेड़-बकरी गाय-भैंस व कुक्कड़ पालन करते हैं।

(अ) आखेट - जंगलों मे तीर कमान से ये लोग जंगली पशुओ का शिकार करते है। पुरूष तालाबों से मछली पकड़ने का. कार्य भी करते हैं। पूर्व में ये महान शिकारी थे लेकिन अब ये लोग कृषि भी करने लगे है। लगभग 80 प्रतिशत भील कृषि कार्य करनेलगे है। पहाड़ी क्षेत्रों की झूमिंग कृषि को 'चिमाता' तथा मैदानी भाग में की जाने वाली कृषि को 'दजिया' कहते हैं।

(ब) भोजन वर्षपर्यन्त भीलों का मुख्य भोजन मुक्का है। उत्सवों व प्रतिभोज के अवसरों पर चावल (चोखा) व लापसी बनती है। छाछ व आटे को उबाल कर लगभग हर घर में राबड़ी बनाई जाती है। गेहूँ, चना, उड़द, मूँग, व सब्जियाँ भी अब इनके भोजन में शामिल हो गये है। रीति-रिवाजों व परम्पराओं के अनुसार भील माँसाहारी होते है। भील लोग महुआ से निर्मित मंदिरा के अधिक व्यसनी हैं।

(स) वस्त्र - देश की आजादी से पूर्व भीलो के वस्त्र बहुत कम होते थे। पुरूष छाल से बनाकर नेकर तथा स्त्रियाँ पेटीकोट पहनती थी। वर्तमान मे पुरूष कमीज, धौती, साफा या पँट-शर्ट पहनने लगे है। स्त्रियाँ घाघरा, काँचली व लगडी पहनती है। लड़के लंगोट पहनते है तथा लड़कियाँ घाघरी व ओढनी पहनती है। भील चाँदी पीतल, जस्ता एवं निकिल से बने आभूषण पहनते है। भील स्त्रियाँ अपने-आप को लाख एवं काँच की चूड़ियों से सजाती एवं संवारती है।

(द) निवास गृह - इनके घर प्रकीर्ण प्रकार के होते है। -झोपड़ियाँ खेत के छोटे टुकड़े के मध्ये टीलों पर बनाई जाती है। प्रत्येक झोपड़ी अपने आप में पूर्ण होती है। जिसमें आवास के साथ अन्न भण्डारण व पशुओं को रखने की भी व्यवस्था होती है। घर की दीवारें मिट्टी-पत्थर व बांस से तथा छत खपरैल से बनी होती है। झोपड़ियों की सामने की दीवार को गोबर, खड़िया व लाल गैरू से लीप-पोत कर सजायी जाती है। वर्तमान में पक्के मकानों का 'चलन भी बढ़ा है। अब कुछ भील सघन बस्तियों में भी रहने लगे है। छोटे गाँवों के समूह का फला व बड़े गाँव को पाल कहते है। चित्र 2. 10 में भील परिवार का आवास प्रदर्शित है।

(य) औजार एवं बर्तन - - धनुष-बाण तलवार एवं खंजर इनके प्रमुख अस्त्र-शस्त्र हैं। वाण दो प्रकार के होते है-एक हरियो व दूसरा रोबदो। पक्षियों को पकड़ने के लिए एक प्रकार का फंदा जिसे फुटकिया कहा जाता है, काम में लिया जाता है। सम्पन्न भील बदूकों का भी उपयोग करने लगे हैं। भीलो के घरों में मिट्टी से बने बर्तन, मक्का पीसने की चक्की तथा बाँस से बना पालना जरूर पाया जाता है।

(iii) समाज व संस्कृति

भील अनेक पितृसत्तात्मक समूहों व कुलों में संगठित है। प्रत्येक कुल के लोग अलग-अलग गाँवों में रहते है। प्रत्येक कुल का अपना-अपना गण चिह्न होता है भील युवा हो या वृदउसकी पत्नी जरूर होती है। चाहे वह सामान्य विवाह से या भगा कर लायी गयी हो। इनमें बहु-पत्नी प्रथा भी पायी जाती है। सामान्यतयाः विवाह का प्रस्ताव घर पक्ष की ओर से आता है। इनमें कन्या का मूल्य देना पड़ता है, जिसे दापा कहा जाता है। जो लड़के के पिता को देना होता हैं । गोल गाधेड़ों प्रथा के द्वारा कोई भी युवक शूरवीरता व साहस का कार्य दिखलाते हुए शादी हेतु युवती को चुनने का अधिकार पाता है।

 ये प्रकृति पूजक है। ये कृषि यंत्रों व उपकरणों की भी पूजा करते है क्योंकि अधिकांश भील कृषक है। भीलों में बहुत से देवी-देवताओं की पूजा की जाती है। कुछ लोग नागदेव को पूजतें है। ये अंधविश्वासी होते हैं तथा भूत-प्रेतों में विश्वास करतें है। ये मृतकों का दाह संस्कार करते है।

होली व दीपावली महत्त्वपूर्ण पर्व है। लम्बे समय तक होली माता के गीत गाते हैं। घूमर एवं गैर भीलों के प्रमुख नृत्य है। राजस्थान में सोम, जाखम एवं माही से बनी त्रिवेणी पर भीलों का प्रमुख बेणेश्वर मेला जनवरी-फरवरी माह में लगता है। ये मेला शिव की आराधना हेतु लगता है। ये आग के चारों ओर नृत्य करते है एवं गीत गाते हैं। रात्रि में लक्ष्मी नारायण मंदिर में रास लीला का आनंद लेते है।

इस जनजाति में ढोल बजाकर आपातकालीन समय में सभी को एकत्रित कर लिया जाता है। फाइरे-फाइरे भीलों का रणघोष है। समस्त पाले का मुखिया गमेती कहलाता है जो एक प्रकार से इनका शासक है। मार्गदर्शक को बोलावा कहते है

सामाजिक जीवन : भीलों के कई पितृवंशीय गौत्र होते हैं। जिन्हें अटक कहा जाता है। भीलों में विवाह सम्बन्ध स्वयं की गोत्र से अन्य गोत्र में होते हैं। भीलों में विवाह के कई प्रकार जैसे- मोर बान्दिया विवाह, अपहरण विवाह, देवर विवाह, विनिमय विवाह, सेवा विवाह एवं क्रय विवाह के तरीके प्रचलित है।

भीलों में गांव के मुखिया को गामेती, झाड फूँक करने वाले को भोपा तथा धार्मिक संस्कारों को सम्पन्न कराने वाले व्यक्ति को भगत कहते हैं। इनके छोटे गांव को फला और बड़े गांव को पाल कहते हैं।

गवरी एवं घूमर भीलों के प्रमुख नृत्य है। श्रावण मास में पार्वती के पूजन का "गवरी" पर्व इनका विशिष्ट उत्सव है। भील हिन्दुओं के सभी देवी-देवताओं के साथ साथ स्थानीय लोक देवताओं (धराल, बीरसा मुण्डा, कालाजी गोराजी, माताजी, गोविन्द गुरू, लसोडिया महाराज आदि की पूजा करते हैं।

(iv) आधुनिक संस्कृति से सम्पर्क

वर्तमान में भीलों का सम्पर्क शहरी क्षेत्रों से होने के कारण ये चतुर व चालाक हो गये हैं। अब भील, बाजार आधारित अर्थव्यवस्था की ओर अग्रसर हो रहे है। युवा वर्ग मेहनत मजदूरी करने लगे है। बाह्य संस्कृति के सम्पर्क में आने से इनके पहनावे. बोलचाल व रहन-सहन में तेजी से बदलाव आ रहा है।

सरकारें आदिवासी क्षेत्रों के प्रादेशिक विकास हेतु विद्यालय, चिकित्सालय तथा वहन, संचार बैंकिंग की सुविधाएँ उपलब्ध करवा रही हैं। सरकार कुटीर उद्योगों तथा वन व कृषि आधारित उद्योगों को बढ़ावा दे रही है। आधुनिक संस्कृति से बढ़ते सम्पर्क के साथ इनकी जीवन शैली में आमूल-चूल परिवर्तन आ रहा है।

गाँड (Gond)

-गौड विश्व का सबसे बड़ा जनजातिय समूह है। भारतीय प्रायद्वीप पर निवास करने वाली जनजाति को गाँड कहा जाता है। गौंड शब्द की उत्पत्ति खोण्डा से हुई है जिसका अर्थ है पहाड़ी । गाँड अपने आप को कोइटुर या कोल भी कहते है। सोलहवीं से मध्य अठारहवीं सदी तक मध्य भारत में गौंडो से शासित चार गढ़ माण्डला, देवगढ़, चाँदा व खेडला पनपे। मुगलों व 1940 में मराठों के प्रभुत्व के बाद ये हाशिये पर चले गये। वर्तमान में इनका निवास दुर्गम व पहाड़ी क्षेत्रों तक सीमित हो गया।

 (1) निवास क्षेत्र

गौंड जनजाति के कई वर्ग मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, तेलंगाना, महाराष्ट्र, उड़ीसा व आसाम में रहते हैं। गौंड सतपुड़ा पहाड़ियों, मैकाल श्रेणी, सोन-देवगढ़ उच्च भूमि, बस्तर पठार व गढ़जत पहाड़ियों में रहते हैं। मानचित्र 2.3 में गौंड जनजाति के निवास क्षेत्रों को प्रदर्शित किया गया है। इन पहाड़ियों की ऊँचाई 600 से 900 मीटर के बीच है। इन क्षेत्रों से देश की प्रमुख नदियों जैसे नर्मदा, ताप्ती, सोन, महानदी व गोदावरी का उद्गम हुआ है। इन क्षेत्रों में सघन वन पाये जाते हैं। ग्रीष्म काल में तापमान 40* सैल्शियस तक हो जाता है। इन क्षेत्रों में वर्षा का औसत 120 सेमी से 160 सेमी के बीच रहता है।

(1) आर्थिक क्रिया-कलाप

ये लोग आत्म निर्भर होते है। इनके जीवन की आवश्यकताएँ बहुत ही साधारण होती है। इन लोगों का मुख्य व्यवसाय झूमिंग कृषि व आखेट है। कुछ वनोत्पाद संग्रह, पशुपालन व मछली पकड़ने का कार्य भी करते हैं। दीप्पा कृषि, झूमिंग कृषि का एक प्रकार है जिसमें भूमि पर दो-तीन वर्ष खेती करने के बाद उसे पड़त छोड़ दिया जाता है। इस प्रकार की कृषि में पेड़ों व झाड़ियों को जलाकर व भूमि को साफ कर खेत तैयार करते हैं। उसमें फावडे या हल से कुरेदकर बीजों को छिटककर बोया जाता है। बीज बोने के बाद देवी माता को और जंगल के अन्य देवताओं को पशु बलि दी जाती है। पैंड़ा कृषि मध्य प्रदेश के बस्तर में तीव्र पहाड़ी ढालों पर सीढ़ीदार खेतों पर की जाती है। खेतों में मिट्टी की आर्द्रता को बनाये रखने के लिए निचले भागों में लकड़ी के लठ्ठे रख दिये जाते हैं जिनसे मिट्टी का कटाव भी नहीं होता है। कुरुख, केवट और धीवर वर्ग के गौंड मछुआ-कर्म द्वारा जीवनयापन करते हैं। पशुपालन भी किया जाता है। इनमें रावत वर्ग का मुख्य पेशा पशुचारण करना व दूध बेचना है।

(अ) आखेट - ये जानवरों का शिकार करतें है। भारत में आखेट करना अब राजकीय नियमों से निषेध है फिर भी ये लोग कुछ मात्रा में वन्य जीवों का शिकार कर लेते हैं। धीरे-धीरे शिकार का स्थान कृषि ने ले लिया है। अधिकाँश गौंड लोग अब कृषक बन गये हैं।

(ब) ओजन कोदू व कुटकी जैसे स्थानीय अनाज गौंडों के मुख्य खाद्यान है। सब्जियों घरों में उगाकर या जंगलों से प्राप्त करते है। उत्सवों व त्यौहारों पर चावल बनते है। शिकार से प्राप्त व बलि दिये जानवरों का माँस भी खाते हैं। गौंड धूम्रपान करते हैं तथा महुआ से बनी शराब का सेवन भी करते हैं।

(स) वस्त्र व आभूषण गौंड प्रायः सूती वस्त्र पहनते हैं। पुरूष धोती तथा स्त्रियाँ साड़ी व चोली पहनती है। पुरुष व स्त्रियों दोनों चाँदी व एल्युमिनियम के गहने पहनते है। स्त्रियों कॉच की रंग बिरंगी चूड़ियाँ व गले में काले मनकों व कोड़ियों से बना हार पहनती हैं। स्त्रियों अक्सर शरीर पर गोदना गुदवाती है। चित्र 2.13. में गाँड महिला द्वारा शरीर पर गुदवाया गोदना देख सकते हैं। लड़कियाँ अपने बालों के जूड़े में सफेद बॉस से बने आधे दर्जन तक कंधे रखती है।

(द) निवास गृह गाँड नंगले अर्थात पल्ली और छोटे-छोटे गाँवों में रहते हैं। जिस स्थान पर आवास बनाना होता है उसका शगुन निकलवा कर उस स्थान पर उत्सव मनाते हैं।

वहाँ बतख या मुर्गे की बलि दी जाती है। इनके मकान घास-फूल मिट्टी के बने होते हैं जिसमें रहने का कमरा, रसोई. बरामदा व पूजाघर जरूर होता है। चित्र 2.14 में गौड आवास प्रवेश का उत्सव का दृश्य है।

(य) औजार व बर्तन गौड लोगों के औजार बहुत साधारण होते है जो स्थानीय कारीगरों द्वारा बनाये जाते हैं। स्थानीय लुहार फॉलिक, खुरपी, फावडा, दराती कुल्हाड़ी व तीरों की नोक आदि बनाते हैं। लकड़ी का सामान ये लोग स्वयं ही बना लेते हैं। गौड के घरों में कुछ चारपाइयाँ तथा लकड़ी के स्टूल होते है दरियाँ बैठने व सोने के लिए काम में ली जाती है।

समाज व संस्कृति गौड पितृसत्तात्मक समाज की रचना में रहते हैं। पिता की मृत्यु के उपरान्त उसकी सम्पूर्ण अचल सम्पत्ति उसके पुत्रों में बॉट दी जाती है। सबसे बुजुर्ग पुरूष परिवार का मुखिया होता है। गॉड लोगों में सेवा विवाह, विनिमय विवाह, हरण विवाह तथा विधवा विवाह का प्रचलन है। इन लोगों में विवाह समारोह किसी प्राकृतिक स्थान जैसे जल स्रोत के निकट अथवा आम के वृक्ष के नीचे किया जाता है। इस अवसर पर अनिष्ट से बचने के लिए रामधुनी का आयोजन किया जाता है। गाँव के मुखिया को पटेल अथवा मुखाम तथा गाँव के चौकीदार को कोतवार के नाम से जाना जाता है.1/ आपसी विवादों का निपटारा गाँव की पंचायत करती है। गाँव के पुजारी व पुरोहित को देबारी कहा जाता है।!

गोंडी बोली द्राविडियन भाषा परिवार से संबंधित है जिसका सम्बन्ध तमिल व कन्नड़ से है। कई गौड हिन्दी, मराठी व तेलगु भी बोलते है। साक्षरता का स्तर देश के औसत से बहुत नीचे है। महिला साक्षरता नगण्य है।

गौड जनजाति के लोग नृत्य व गीतों के साथ पर्व व उत्सव मनाते है। गौंड पूर्णिमा को चाँदनी रात में इकट्ठे होकर गाने व नाचने का पूरा आनंद लेते है। स्त्री व पुरुष दोनों साथ नाचते हैं। भूतियाँ गौडो की प्रमुख गायक जाति है। प्रधान गौड़ो की मान्यताओं व इतिहास को गाकर लोगों को सुनाते हैं। प्रधान की कथानुसार जब गौंड के भगवानों ने जन्म लिया तो उनकी माँ ने उन्हें बेसहारा छोड़ दिया। देवी पार्वती ने उनको सहारा दिया। लेकिन शंभू महादेव ने उनको एक गुफा में कैद कर दिया। गाँडो के नायक पाहेन्डी कपार लिंगम ने देवी जंगू बाई की मदद से उन्हें गुफा से आजाद करवाया। वे चार समूह में गुफा से बाहर आये। तभी से गौंड चार मुख्य वर्गों में बँटे हुए है जिसे गोंडी भाषा में सगा गौंड भूतकाल में मुर्गों को आपस में लड़ा कर अपन मनोरंजन करते थे। बड़ा देव, श्री शंभू महादेव व परशा पेन इनके प्रमुख देवता हैं। शीतला माता व छोटी माता देवी की भी पूजा करत है। ये लोग देवी-देवताओं का प्रसन्न करने के लिए भेड़-बकरिय की बलि देते है। इनमें अनंके प्रकार के जादू-टोनों का प्रचलन है। रात्रि जागरण करते है। अधिकांश गौंड हिन्दू है । पर कुछ लोग प्रकृति पूजक है। प्रकृति पूजकों का विश्वास है कि भगवान वनों निवास करता है। गौंड लोग काली, दंतेश्वरी व बड़ा देव को नर बलि भी देते थे जिसे 19 वीं सदी में अंग्रजों ने प्रतिबंधित कर दिया था। गौंड जनजाति के लोग मृत शरीर को जलाते व दफनातें है। इनक विश्वास है कि आत्मा अजर-अमर है।

(iv) आधुनिक संस्कृति से सम्पर्क

गौंड लोगों के आवास्य क्षेत्रों में औद्योगिक विकास के कारण विगत 30 वर्षों में श्रमिक-कर्म की प्रवृत्ति बढ़ी है। बड़ी संख्या में लोग खदानों व विनिर्माण उद्योगों में श्रमिकों के रूप में कार्य करने लगे है। खनन व निर्माण केन्द्रों के समीप इनकी नई व स्थाई बस्तियाँ बस गई है। इन बस्तियों में अस्पतालों, विद्यालयों, बाजारों बैंको व पंचायतों की स्थापना हुई है। सड़क व रेल मार्गों के जाल से इनका सम्पर्क शहरों से बढ़ा है। जीवन-शैली में तेजी से बदला आ रहा है। पुराने रीति-रिवाज व परम्पराओं की पकड़ ढीली हुई है। सरकार ने दाराना की प्रतीक कबाड़ी प्रथा को पूर्ण रूप से प्रतिबंधित कर दिया है। इस प्रथा के अनुसार छोटे से कर्ज का चुकाने के लिए ऋणी की कई पीढ़ियों को साहूकारों के गुलामों के भाँति कार्य करना पड़ता था।

शिक्षा का स्तर बढ़ने लगा है। जीवन अधिक सुविधाजनक है गया है। गौड़ जनजाति अनुसूचित जनजाति में श्शामिल होने कारण इन्हें सरकार से कई सुविधाओं का लाभ प्राप्त हो रहा है।

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