". राजस्थान- स्थानीय स्वशासन ~ Rajasthan Preparation

राजस्थान- स्थानीय स्वशासन


राजस्थान मे स्थानीय स्वशासन (Local self govt in rajasthan)

स्थानीय स्वशासन क्या है?

भारतीय संविधान की 7वीं अनुसूची की 5वीं प्रविष्टि में लिखा है, "स्थानीय शासन अर्थात् नगर निगम, सुधार न्यासों, जिला परिषदों, खनन बस्ती, प्राधिकरणों तथा स्थानीय स्वशासन अथवा ग्राम प्रशासन के प्रयोजनों के लिए अन्य स्थानीय प्राधिकारियों का गठन तथा शक्तियाँ।

संक्षेप में कहा जा सकता है कि स्थानीय व्यक्ति स्वयं अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से स्थानीय मामलों का प्रबन्ध करे। व्यवहार में नगर निगमों, नगर परिषदों तथा नगरपालिकाओं आदि के द्वारा सम्पादित किये जाने वाले समस्त कार्य स्थानीय शासन के अन्तर्गत आते हैं।

  • लॉर्ड रिपन ने 1882 मे सर्वप्रथम स्थानीय स्वशासन की शुरुआत की।
  • स्थानीय स्वशासन का जनक - लाॅर्ड रिपन
  • स्थानीय स्वशासन राज्य सुची का विषय है।
स्थानीय स्वशासन के दो स्तर होते है 
1) ग्रामीण स्वशासन 
2) शहरी स्वशासन

ग्रामीण - स्वशासन 

  • इसे पंचायती राज व्यवस्था कहा जाता है।
  • श्री बलवंत राय मेहता समिति की सिफ़ारिश पर 2 अक्टूम्बर1959 को सर्वप्रथम नागौर जिले मे प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा पंचायती राज व्यवस्था का उदगाटन किया गया। 
  • भारतीय संविधान के भाग 4 मे अनुच्छेद 40 के तहत राज्य को ग्राम पंचायतों के गठन का निर्देश दिया गया। 
  • राजस्थान सरकार ने राजस्थान पंचायती राज अधिनियम 1994, 23 अप्रैल 1994 से लागू किया पंचायती राज व्यवस्था को लागू करने वाला पहला राज्य राजस्थान है।
  • पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक दर्जा देने की सिफारिश लक्ष्मीमल समिति द्वारा कि गई।
  • 73वें संविधान संशोधन अधिनियम 1993 के अंतर्गत पंचायती राज व्यवस्था को संविधान में जोड़ा गया इसके अंतर्गत संविधान में भाग 9 व 11वी अनुसूची एवं धारा 243 से 243(O) तक जोड़ी गई।

पंचायती राज व्यवस्था को तीन स्तरों में वर्गीकृत किया गया है।
1) ग्राम स्तर
ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत का गठन किया जाता है।
ग्राम सभा - ग्राम पंचायत क्षेत्र के पंजीकृत सभी वयस्क स्त्री पुरुष मतदाताओ से मिलकर बना समूह ग्राम सभा कहलाती है।(धारा 243)  
न्यूनतम 3000 की जनसंख्या होने पर 1 ग्राम पंचायत का गठन किया जाता है एवं इसमें वार्डों की संख्या नो होती है एवं प्रत्येक 1000 जनसंख्या वृद्धि पर दो वार्डो कि संख्या बढ़ा दी जाती है।
ग्राम पंचायत की बैठक 15 दिन में होना अनिवार्य है।
ग्राम पंचायत के सदस्य
1) सरपंच
2) उपसरपंच 
3) वार्डपंच 
4) ग्राम विकास अधिकारी(VDO)- यह ग्राम स्तर पर प्रशासनिक अधिकारी होता है।

2) खंड स्तर
खंड स्तर पर पंचायत समिति का गठन किया जाता है।
न्यूनतम एक लाख जनसंख्या पर एक पंचायत समिति का गठन किया जाता है एवं इसमें वार्डो संख्या 15 होती है। प्रत्येक 15000 जनसंख्या वृद्धि होने पर 2 वार्डो कि संख्या बढ़ा दी जाएगी।
पंचायत समिति की बैठक 30 दिन में एक बार होना अनिवार्य है।
खंड स्तर पर सदस्य
1) प्रधान
2) उप प्रधान
3) पंचायत समिति के सदस्य 
4) खंड विकास अधिकारी (BDO)- खंड स्तर पर प्रशासनिक अधिकारी होता है।

3) जिला स्तर
जिला स्तर पर जिला परिषद का गठन किया जाता है।
न्यूनतम 4 लाख ग्रामीण जनसंख्या पर जिला परिषद का गठन किया जाता है एवं इसमें वार्डो कि संख्या 17 होती है। प्रत्येक 1 लाख जनसंख्या वृद्धि होने पर 2 वार्डों की संख्या बढ़ा दी जाएगी।
जिला परिषद की बैठक 90 दिन में होना अनिवार्य है।
जिला स्तर पर सदस्य
1) जिला प्रमुख - प्रमुख अपना त्यागपत्र संभागीय आयुक्त को देता है।
2) उप जिला प्रमुख
3) जिला परिषद के सदस्य 
4) मुख्य कार्यकारी अधिकारी(CEO) - यह खंड स्तर पर प्रशासनिक अधिकारी होता है।

जिला स्तर के पदेन सदस्य
1) जिला परिषद के अंतर्गत आने वाली सभी पंचायत समितियों के सदस्य
2) सांसद
3) जिले के सभी ग्रामीण विधायक
4) जिले में कोई राज्यसभा का सदस्य हो तो वहां भी शामिल होगा।

पंचायती राज संस्थाओ के प्रत्येक सदस्य के चुनाव हेतु योग्यता कार्यकाल एवं विघटन की स्थिति

  • न्यूनतम आयु 21 वर्ष एवं संबन्धित क्षेत्र का मतदाता होना आवश्यक है। 
  • 27 नवम्बर 1995 के पश्चात किसी व्यक्ति के तिसरी संतान पैदा होने पर चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य 
  • कोई भी व्यक्ति किसी पंचायती राज संस्था के एक से अधिक स्थानो से एक साथ चुनाव नही लड सकता तथा एक  साथ एक से अधिक पचायती राज संस्थाओ का सदस्य नही रह सकता। 
  • कोई भी व्यक्ति किसी पंचायती राज संस्था तथा संसद या किसी विधानमंडल का एक साथ सदस्य नहीं हो सकता।   
  • सरपंच के चुनाव हेतु 8वी पास तथा जिला परिषद व पंचायत समिति के सदस्य के लिए 10 वी पास तथा अनुसुचित क्षेत्र के सरपच हेतु 5 वी पास होना आवश्यक है। 
  • शौचालय होना आवश्यक है। 
  • कार्यकाल 5 वर्ष 
  • कार्यकाल की समाप्ति से पूर्व नए चुनाव कराना आवश्यक है। 
  • पंचायती राज संस्थाओं के सदस्यों को अविश्वास प्रस्ताव द्वारा हटाया जा सकता है किंतु कार्यकाल के प्रारंभ में 2 वर्षों तक और अविश्वास प्रस्ताव नहीं लाया जा सकता।
  • विघटन की स्थिति मे विघटन के 6 माह के भीतर चुनाव कराना आवश्यक है यह चुनाव विघटन के बाद बचे हुए कार्यकाल के लिए ही कराए जाएंगे।

राज्य निर्वाचन आयुक्त

पंचायत राज संस्थाओ के चुनाव राज्य निर्वाचन आयोग द्वारा करवाए जाते है।  इसका अध्यक्ष राज्य निर्वाचन आयुक्त होता है। 

निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति राजस्थान के राज्यपाल द्वारा की जाती है। 

इनका कार्यकाल कार्यग्रहन की तिथि से 5 वर्ष या 65 वर्ष की आयु जो भी पहले हो होगा। 

इसे उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की तरह संसद द्वारा महाभियोग प्रस्ताव पारित करने पर राष्ट्रपति द्वारा हटाया जा सकता है।

प्रथम राज्य निर्वाचन आयुक्त श्री अमरसिंह राठौड़ बने थे।

शहरी स्वशासन

इसे नगर पालिका व्यवस्था कहा जाता है।

राजस्थान मे प्रथम नगर पालिका की स्थापना आबु मे 1865 मे हुई, 1885 तक जोधपुर, बीकानेर व कोटा में भी नगरपालिका की स्थापना हुई।

1959 मे राजस्थान नगरपालिका अधिनियम पारित किया गया।

74 वें संविधान संशोधन 1994  के अंतर्गत नगर पालिका व्यवस्था को भाग 9 (क) बनाकर  संविधान में जोड़ा गया इसके अंतर्गत भाग 9 व 12वी अनुसूची एवं धारा 243(p) से 243(zg) तक जोडा गया।

शहरी स्वशासन के अंतर्गत शहरी क्षेत्र मे जनसंख्या के अनुपात एवं वित्तीय साधनो की दृष्टि से तीन प्रकार के निकायो का गठन किया गया एवं इसे संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया।

1) नगर निगम

मुखिया- महापौर

जनसंख्या- 5 लाख से अधिक 

राजस्थान मे वर्तमान में नगर निगम- 7

चुनाव- जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से गुप्त मतदान प्रणाली द्वारा।

2) नगर परिषद 

मुखिया - सभापति

जनसंख्या- 1 लाख से 5 लाख के बीच 

राजस्थान मे वर्तमान में नजर परिषद - 34

चुनाव - जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से गुप्त मतदान प्रणाली द्वारा 

3) नगर पालिका 

मुखिया- अध्यक्ष 

जनसंख्या- 20 हजार से 1 लाख के बीच 

भारत मे अन्य प्रकार के नगर निकाय भी है जो स्थानीय स्वशासन के क्षेत्र मे कार्यरत है किंतु इन्हे संवैधानिक मान्यता प्राप्त नही है।

1) छावनी मंडल - राजस्थान मे एकमात्र छावनी मंडल नसीराबाद (अजमेर) मे स्थित है।

2) विकास प्राधिकरण- राजस्थान मे जयपुर व जोधपुर में विकाह प्राधिकरण है।

3) नगर विकास न्यास

4) आवासन मंडल

प्राचीनकाल में स्थानीय स्वशासन :

  • ऋग्वेद तथा अथर्ववेद में सभा समिति एवं विदथ जैसी संस्थाओं का उल्लेख मिलता है। 
  • वाल्मीकि रामायण में पौर तथा जनपद सभाओं की सत्ता का उल्लेख मिलता है।
  •  महाभारत में नगरों के शासनाधिकारी को स्वार्थचिंतक' कहते थे। 
  • चन्द्रगुप्त मौर्य ने स्वायत्त शासन प्रणाली प्रचलित कर दूरदर्शिता और कुशल राजनीतिज्ञ का परिचय दिया। उसने शासन के विकेन्द्रीकरण की नीति अपनाई । चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में नगर की प्रशासन व्यवस्था सन्तोषजनक थी। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार नगर का सबसे बड़ा पदाधिकारी नागरिक' कहलाता था। मैगस्थनीज ने इण्डिका में नामक पुस्तक में पाटलिपुत्र नगर की प्रशासन व्यवस्था का विस्तृत विवरण दिया है जिससे विदित होता हैं कि वह एक प्रकार की म्यूनिसिपल व्यवस्था थी। उसकी तुलना आज की म्यूनिसिपल कार्य प्रणाली से की जा सकती है। पाटलिपुत्र का प्रशासन पाँच-पाँच सदस्यों की 6 समितियाँ करती थीं।

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