". मारवाड़ का राठौड वंश ~ Rajasthan Preparation

मारवाड़ का राठौड वंश


मारवाड़ का राठौड वंश 

उत्पत्ति 

जोध राज्य की ख्याल मे राठौडो की उत्पत्ति विश्वुत्मान के पुत्र ब्रिहदबल से माना है।

गोपीनाथ शर्मा के अनुसार राठौड़ वंश की उत्पत्ति राष्ट्रकूट राजवंश से हुई है।

राज रत्नाकर एवं भाट साहित्यकार ग्रंथ के अनुसार राठौड़ों की उत्पत्ति हिरण्यकश्यप से हुई है।

राठौड स्वयं को भगवान श्री राम के पुत्र कुश के वंशज मानते हैं।

इतिहासकार हार्नली के अनुसार राठौड़ गडहवालो की बदायूं शाखा से उत्पन्न हुए हैं, गौरीशंकर ओझा ने इस मत का समर्थन किया।

कर्नल जेम्स टॉड के अनुसार राठौड़ जयचंद गडहवाल के वंशज है एवं यह सूर्यवंशी है, दयालदास की ख्यात मे भी इन्हे सुर्यवंशी माना है 

नयन चंद्र सूरी एवं सूर्यमल्ल मिश्रण ने इस मत का समर्थन किया है।

राव सीहा (1237-73)

1237 ईस्वी मे राव सिहा ने पाली में राठौड़ वंश की स्थापना की।

इन्होने अपनी राजधानी पाली को बनाया।

1273 मे राव सिहा तुर्की आक्रांताओ के साथ युद्ध मे मारे गए।

आसनाथ

जलालुद्दीन खिलजी से युद्ध मे मारे गए।

राव धुहड

इन्होने राठौडो की कुलदेवी नागणेची माता के मन्दिर का निर्माण करवाया, यह माता की मूर्ति कर्नाटक से लाए थे।

मल्लीनाथजी

इन्होने खेडा (बालोतरा) को अपनी राजधानी बनाया।

वीरमदेव 

राव चुडा (1394-1423)

इन्होने अपनी राजधानी मंडोर को बनाया।

इन्हे प्रतिहार शासक इन्दा प्रतिहार की पुत्री किशोरी कंवर से विवाह करने पर मण्डोर दहेज मे प्राप्त हुआ।

इनकी रानी चाँद कंवर ने चांद बावडी(जोधपुर) का निर्माण करवाया

राव रणमल (1427-1438)

राव जोधा (1439-1489)

रणमल की मृत्यु के बाद यह जंगलों मे चले गए 1453 मे इन्होने अपनी पुत्री श्रृंगार देवी का विवाह मेवाड के रायमल से करके मेवाड के साथ संबंध स्थापित किए।

1459 मे इन्होने जोधपुर की स्थापना की एवं इसे अपनी राजधानी बनाया।

इन्होने चिडियाटुंक पहाडी पर मेहरानगढ दुर्ग का निर्माण करवाया।

इन्होने बहलोल लोदी की सेना को पराजित किया।

राव मालदेव (1531-1562)

इन्होने 1532 मे बहादुर शाह के आक्रमण के समय विक्रमादित्य का सहयोग किया था।

इन्होने खानवा के युद्ध में अपने पिता गांगा की ओर से राणा सांगा का सहयोग किया।

1536 मे राव मालदेव ने राव लुणकरण की पुत्री उमा दे से विवाह किया किंतु यह मालदेव से रूठ गई थी इसलिए इसे रूठी रानी कहा जाता है।

1542 मे इन्होने मेडता के बीरमदेव को हराया।

1542 मे इन्होने बीकानेर के राव जैतसी को भी पराजित किया।

हुमायूँ के शेरशाह से हार जाने के बाद मालदेव ने उसका साथ देने का प्रस्ताव भेजा किंतु सफल नही हुआ।

गिरी सुमेल युद्ध- 1544

मालदेव एवं शेरशाह सूरी के बीच 1544 मे युद्ध हुआ जिसमे शेरशाह ने मालदेव एवं उसके सेनापति जैता व कुंपा के बीच अविश्वास उत्पन्न कर दिया जिससे मालदेव युद्ध छोड़कर चला गया था, यह युद्ध मालदेव ने इतनी कठिनाई से जीता की युद्ध के बाद उसने कहा की मुट्ठी भर बाजरे के लिए मे हिंदुस्तान की बादशाहत खो देता।

1545 मे शेरशाह सूरी की मृत्यु के बाद मालदेव ने जोधपुर को पुनः ले लिया।

1562 मे इनकी मृत्यु हो गई।

राव चन्द्रसेन (1562-1581)

मालदेव ने अपने सबसे छोटे पुत्र चन्द्रसेन को उत्तराधिकारी बनाया, इस उसके बडे भाईयों से उसके संबंध ठीक नही थे।

रामसिंह 1564 मे अकबर की शरण में चला गया, बाद मे उदयसिंह भी अकबर की शरण मे चला गया, अकबर ने हुसैन कुली खाँ के नेतृत्व मे सेना भेजकर जोधपुर पर कब्जा कर लिया, एवं यहाँ का शासन बीकानेर के रायसिंह को दिया गया।

इसके बाद चन्द्रसेन ने भद्राजन से मुगलो के विरूद्ध संघर्ष जारी रखा भद्राजुन को मुगल सेना द्वारा घेर लेने के कारण वह सिवाणा चला गया था जब चन्द्रसेन हाथ नही लगा तो उन्होंने चन्द्रसेन का साथ देने वाले रावल सुखराज, सुजा एवं देवीदास को पकड लिया, बाद मे सिवाणा पर भी मुगल सेना तैनात कर लेने के कारण चन्द्रसेन रामपुरा की पहाड़ियो मे चले गए 
यहाँ से वे पिपलोद चले गए एवं कनुजा की पहाड़ियो से उन्होने मुगलो से अपने क्षेत्र छुडाना शुरू किया इसके बाद फिर से सिरोही, फिर डुंगरपुर बांसवाडा गए।

1570 मे चन्द्रसेन नागौर दरबार मे शामिल हुआ किंतु अकबर की अधीनता स्वीकार नही की।

विश्वेवरनाथ रेयु ने इनकी तुलना महाराणा प्रताप से की है।

1581-1583 तक मारवाड को खालसा रखा गया यहा का शासन अकबर के हाथ मे था।

मोटा राजा उदयसिंह (1583-1595)

अकबर ने यहाँ का शासन 1583 मे मोटाराजा उदयसिंह को सुपुर्द किया।

इन्होने अपनी पुत्री जोधाबाई (जगत गौसाई) का विवाह जहांगीर से किया, खुर्रम इन्ही का पुत्र था।इन्हे 1000 जात एवं सवार का मनसब दिया गया।

महाराजा जसवंत सिंह प्रथम (1638-1678)

इनके पिता गजसिंह की मृत्यु के समय इनकी उम्र 11 वर्ष थी एवं यह अपने विवाह हेतु बुंदी मे थे वही इन्हे शाहजहां द्वारा आगरा बुलाने का पैगाम प्राप्त हुआ, वहाँ शाहजहां ने इन्हें महाराजा की उपाधि प्रदान की। इन्हे 4000 जात एवं सवार दिए गए।
अल्पायु के कारण आसोप के ठाकुर राम सिंह कुम्पावत को 400 सवार के साथ इनका संरक्षक नियुक्त किया।
1945 मे इन्हे आगरा का पर्यवेक्षण सौपा।
1948 मे इन्हे कंधहर अभियान पर भेजा।

उत्तराधिकार संघर्ष के धरमत के युद्ध में इन्होने दाराशिकोह का साथ दिया किंतु यह औरंगजेब विजयी रहा इस कारण यह जोधपुर लौटे किंतु इनकी उदयपुर की रानी ने यह बोलते हुए दुर्ग के द्वार खोलने से इनकार कर दिया की राजपुत या तो युद्ध जीतकर लौटते है या अपने प्राण न्योछावर करके, बाद मे रानी माता के कहने पर इन्होने द्वार खुलवाये।

अन्य महत्वपूर्ण तथ्य 

जोधपुर में उत्तराधिकारी शुल्क को पेशकशी कहा जाता था बाद मे इसे हुक्मनामा कहा जाने लगा।

मारवाड मे चार प्रकार की सामंत श्रेणीयाँ थी-

1) राजवी - यह राजा के तीन पीढ़ियों एक के निकट संबंधी होते थे इनमें रेख, हुकमनामा कर एवं चाकसी से मुक्त रखा जाता था।

2) सरदार

3) गनायद

5) मुत्सद्दी

No comments:

Post a Comment

Comment us